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Monday, November 29, 2010

इसे भी गुज़र जाने दो

आशाओं से लदा-फदा
और नए मौज के चक्के पर आ ही गया है!
आज भी सूरज ने कमोबेश
उतनी ही रोशनी छोड़ी है निर्वात की सुरंगों में.
हवा कुछ तेज़ी है और बादल कहीं-कहीं
गढ़बंधन की जैसी कोशिशों  में मशगूल हैं.
लतीफ़ों के  क्रमांक बदले से तो लग रहे हैं,
ठहाकों का लगभग-लगभग वही है.
खेतों से विदा ले कर आज भी उतनी हीसब्जिया
झूलती मटकती झोलों में सवार होकर
अलग-अलग गंतव्यों की ओर चल चुकीं हैं.
फूलों की खुशबू हालाँकि अब थोड़ी दूर निकल तो गयी हैं
और अब यहाँ पके हुए धान की महक है
लेकिन ये तो तय है की वे कहीं न कहीं से आयीं तो ज़रूर थीं.
कोई आधे, पाव किलो बेलग्रामी, गाजे में
अपने-अपने हिसाब से सासाराम, रोहतास और हसन बाज़ार को
हर डब्बे ने इतिहास की चिंता से मुक्त होकर सहेज लिया है.
इशारों से लदा-फदा और कनखियों का बोनट टाँगे
वो बढ़ता जा रहा है आज भी
एक नए आवरण में लिपट कर.
जिसपर शुभकामनाओं का स्टिकर,
कजरारी चमक के दिठौने में सुरक्षित है.
अब आ ही गया है तो पूरी बारात आ जाने दो.
अच्छे मेजबान का सख्त अभाव है आजकल!
बिठाना, खिलाना, बतियाना न सही,
हम भी तो अपने दोस्त की दुल्हन विदा कराने आये हैं
तो इस सोमवार को भी ज़रा शान से
दिन की दुल्हन ले के खुशी-खुशी गुज़र जाने दो.