WELCOME TO MY BLOG

style="display:block"
data-ad-client="ca-pub-7310137663178812"
data-ad-slot="7458332332"
data-ad-format="auto">




View My Stats

Search This Blog

Saturday, January 10, 2015

"प्रेम को क्या चाहिये"


जैसा भी और जितना भी है आसमान!
गोल, सपाट, किनारों पर झुका हुआ।
एक बिस्तर भर या थाली भर,
या जितना क्षेत्रफल ललाट का है
कम से कम उतना ही सही!
प्रेम पर लिखने के लिये तो काफी ही है।


और वैसे भी प्रेम पर
कोई इससे ज़्यादा क्या लिख सकता है,
एक अपने और एक उसके नाम के अलावा।
हालाँकि, प्रेम अगर वास्तव में है
तो नाम लिखना भी कोई विशेष उपक्रम नहीं है।


जैसा भी और जितना भी है आसमान!
फैला हुआ या बहता हुआ,
या उस वक़्त तक ठहरा हुआ
जब तक हम इसकी तरफ देखते रहते हैं।
उसमें जितना भी नीलापन है,
यहाँ से वहाँ तक लगातारपन की आभा
और जितनी जगह वो निकाल सकता है,
ले तो आता ही है प्रेम के लिये।


चाहे वो तुम्हारा हो, मेरा हो
या किसी और का हो।
इसमें कोई संशय नहीं
कि स्वीकृति अच्छी बात है
लेकिन क्या इतना
कि आसमान पर ठप्पा लगाने से बचा न जा सके।


दो नाम या दो शब्द की बात नहीं है,
बात सांकल और सिटकनी की है।
आसमान चाहे जितना भी है,
उसे आसमान बने रहने का पूरा अधिकार है।
उसमें सांकल और सिटकनी लगा कर
दरवाज़ा बना देना घोर अन्याय है।
तुम प्रेम के बारे में, अपने बारे में,
उसके बारे में एक बार और विचार कर  देख सकते हो
कि उसे क्या चाहिये,
विस्तार या दरवाज़ा ?

निर्मल अगस्त्य।
 .......

Thursday, January 8, 2015

‘‘खोंचर कीजिये, सुख से रहिये’’

न्सान और जानवर में अनगिनत अन्तर है और उन सबों में से एक है खोंचर करने की योग्यता जो हर इन्सान में अनिवार्य रूप से मौजुद है। लेकिन इस योग्यता का प्रभावी होने के लिये आपके ग्रे-मैटर में इसके कीटाणुओं का न्युनतम संख्या में होना आवश्यक है। विज्ञान के हिसाब से थ्रेशहोल्ड ऍमाऊन्ट। अब जैसे ई.कोलाई और बी.कोलाई के कीटाणु हमारे शरीर में एक न्युनतम संख्या से ऊपर होने के बाद ही रोग के लक्षण प्रगट करने की क्षमता रखते हैं तो एक सफल ‘खोंचरिस्ट’ बनने के लिये यह नितान्त आवश्यक है कि आपके ग्रे-मैटर में इसके कीटाणुओं की संख्या थ्रेशहोल्ड अमाउन्ट से बहुत अधिक हो। यह एक देशी शब्द है। इसकी उत्पत्ति  शायद ‘खोंच’ या ‘खरोंच’ से हुई हो सकती है। खोंच लगना, खोंच लग गया, कुर्सी खोंचहा हो गया है... इत्यादी। ये सब अपने बिहार के बहुत से जिलों के लोगों के कहते सुना होगा। ऐसी कोई भी नुकीली या कंटीली वस्तु जो आपके शरीर, कपडे़ या किसी भी वस्तु में खरोंच डाल सके, खोंच देने वाली खोंचहा कहलाती है। यहाँ पर यह संज्ञा है। लेकिन जब हम कहते हैं खोंच लग गया तब यहाँ यह विशेषण है जैसे दर्द हो गया में दर्द विशेषण है और घाव लग गया में घाव संज्ञा है। अब बात रही खोंचर करने की, तो जब यह खोंचहा वस्तु जो एक देशी टूल है, को किसी चीज को खरोंचने के लिये उपयोग में लाया जाता है तो उसे खोंचर करना माना जा सकता है। हालाँकि यह शब्द ‘खोंच’, ‘कोंच’ शब्द के काफी नजदीक है लेकिन दोनों में बहुत अन्तर है। कोंच देने का मतलब होता है अन्दर तक ठूँस देना। अब तीस सीट वाली बस में नब्बे लोग आप बिठा तो नहीं सकते। तब कोंच देना नाम की इस तकनीक का सफलतम प्रयोग जनसंख्या के उच्च घनत्व वाले इलाकों में हमेशा ही किया जाता है।
जबकि खोंच हमेशा ऊपरी सतह पर लगाया जाता है। आपने अपने जीवन में भी इसे किसी न किसी रूप में महसूस किया होगा। कभी काँटों की वजह से, कभी किसी पुरानी कुर्सी में बेहया की तरह पूँछ की तरफ से निकल आये किसी कील की वजह से तो कभी बाँस या लकड़ी में कहीं पर आवारा की तरह निकल आये मोटे रेशे की वजह से। इस खोंच का हाफ ब्रदर है ‘काँप’। यह काँपने वाला काँप नहीं है। जब भी किसी लकड़ी अथवा बाँस की बनी वस्तुओं, जैसे सूप, डगरा की कमानी से कोई टुकड़ा चमडे़ को खरोंचता हुआ अंदर घुस जाये और घुसा रह जाये तो उसे कांप लगना कहते हैं। कुछ लोग, खास कर शहर में रहने वाले लोग जो घरेलू भाषा का प्रयोग नहीं करते हैं, सवाल उठा सकते हैं कि इसे गड़ना या धसना क्यूँ नहीं कह सकते। वो इसलिये नहीं कह सकते कि गड़ने या धंसने की प्रक्रिया में वस्तु माँस में घुस जाती है जबकि काँप लगने की प्रक्रिया में वस्तु चमडे़ में फंस के रह जाती है। दूसरी मुख्य बात यह है कि काँप लगने में वस्तु चमडे़ के समानान्तर होती है जबकि गड़ने या धँसने में वस्तु माँस के लम्बवत भी हो सकती है, तिरछे हो सकती है और समानान्तर भी।
तो खोंच लगने का मतलब आप समझ गये। ऊपरी क्षति, कम नुकसान, घाव भरने में कम वक्त लेकिन बेचैनी और छटपटाहट काँप लगने और गड़ने-धँसने से ज्यादा। काँप लगने और गड़ने-धँसने के बाद अगर किसी महीन चिमटे या सुई की नोक से उस वस्तु को निकाल दिया जाये तो दर्द एकदम छू-मन्तर हो जाता है लेकिन खोंच लगने के बाद आपको तबतक दर्द सहना है जब तक घाव भर न जये। अब आप में से कुछ पाठक मुझसे सवाल कर सकते हैं कि अगर छूरा या गोली धंस जाये तब यह विश्लेषण तो ’आप’ की दिल्ली सरकार की तरह धराशायी हो जायेगा। तो बन्धू, आप सवाल नहीं कर रहे हैं बल्कि खोंचर कर रहे हैं। बात को समझ के भी काटने की कोशिश करने की प्रक्रिया भी, खोंचर करना कहलाती है। आप के घर में शादी-विवाह, छठ्ठी-छिल्ला इत्यादि का उत्सव तो होता ही रहा होगा। आप इन मौके पर ऐसे प्राणियों को बहुत आसानी से ढूँढ़ सकते हैं जो खोंचर करने में एक्सपर्ट हों।
हमारे यहाँ विवाह समारोह में रिश्तेदार तीन-चार दिन पहले से आने लगते हैं। इक्कीसवीं सदी में यही एक आराम मिला है हम सभी को कि अब लोगों के पास उतना समय नहीं है अन्यथा बीसवीं सदी के अन्तिम दशक तक रिश्तेदार एक महीना पहले ही आ जाते थे। तो इतने लोगों का खाना बनाने के लिये किसके घर में बर्तन रहेगा भला। तो जाहिर सी बात है लोग हलवाई रखते हैं। ये घरभोज या घरभैया भोज वाले हलवाई कहलाते हैं। हालाँकि घरभोज को गृहप्रवेश का भोज भी कहा जाता है तो आईये घरभैया भोज से काम चलाते हैं। अभी इनका रेट पाँच सौ रूपये प्रति आदमी से लेकर नौ सौ रूपये तक है। प्रति आदमी का मतलब खाने वालों की संख्या से नहीं बल्कि हलवाई और उसके कारीगरों की संख्या से है। अब पाँच दिन या एक सप्ताह कोई भी न तो छप्पनभोग खा सकता है, न खिला सकता है तो भात, दाल, भुजिया, दो तरह की घरेलू स्टाईल की सब्जी, चोखा-चटनी, पापड़-तिलौड़ी खिलाने के लिये कैटरर को बुक करना तो बेवकुफी है। तब ऐसे घरवैया भोज वाले हलवाईयों को काम पर रखा जाता है। अब इतने रिश्तेदारों में वो खोंचरिस्ट कहीं न कहीं इस मौके का इन्तजार कर रहा होता है जो अगर जवान हो तो यू-ट्यूब पर संजीव कपूर, तरला दलाल और निशा मधुलिका सरीखे नामचीन विशेषज्ञों का वीडियों देख कर वर्चुअल हलवाई बन चुका होता है और अगर बूढ़ा या अधेड़ हो तो अपने उम्र से बीस गुना भोजों में खा चुका होता है। अब उनकों भी पता है कि उनकों आलू-गोभी का दम, बिरयानी और राजभोग बनाने के लिये नहीं रखा गया है, फिर भी बैठ जायेंगे स्टूल लगा के गैस सिलिन्डर के पास और लगेंगे खोंचर करने।
अच्छा केसर कहाँ से खरीदते हो भाई। आजकल केसर के नाम पर एसेंस में डुबाया हुआ, धोती रंगने वाला चम्पई रंग से रंगा हुआ दूब्बी बिकता है बजार में, समझ कि नहीं। अच्छा छीलने के बाद प्याज धोये की नहीं। देखो, छौंकने समय तुमलोग मेथी पहले डालते हो और जीरा बाद में इसलिये तुमलोग का बनाया खाना घर जैसा नहीं लगता। सुनो, मसाला पिसवाओगे त हमको बुला लेना, हम बतायेंगे कि केतना-केतना पडे़गा। अच्छा, चायपत्ती उधर ठोंगा में काहे रखे हो जी। चायपत्ती हमेशा स्टील के डिब्बा में रखा जाता है। वगैरह-वगैरह। कुछ देर में हलवाई को विश्वास होने लगता है कि वह चोखा बनाने लायक भी नहीं है। ऐसी हजारों बातें होती हैं शादी-विवाह और किसी उत्सव वाले घर में। ऊपर तो मैनें बस कुछ सैम्पल लिखा है क्युँकि हर किसी को ऐसे खॉंचों से गुजरना पड़ता है और आप सब भी ऐसी खोंचर करने वाली बातों से पूर्णतया परिचित होंगे।
अपना रोजगार कीजिये तो नौकरी करने वाले दोस्त, रिश्तेदार आपको खोंचर करेंगे। नौकरी कर लीजियेगा तो अपना रोजगार करने वाले दोस्त, रिश्तेदार आपको खोंचर करेंगे। अगर आपका भूगोल अच्छा है तो इतिहास वाला मास्टर खोंचर करेगा। अगर आपका सारा विषय अच्छा ह तो आर्ट एन्ड क्राफ्ट, पी.टी. और स्पोटर्स टीचर आपको खोंचर करेगा।
आप रोग से बच सकते हैं। दुश्मन से बच सकते हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तान से भी बचे रह सकते हैं लेकिन खोंचरिस्ट से नहीं बच सकते क्योंकि ये आपके बेहद करीब के लोग होते हैं जिन्हें पलटवार कर सबक सिखाने का जोखिम आप नहीं ले सकते। अगर आप बेटी का ब्याह आई.ए.एस. अधिकारी से ठीक कर दीजिये तो बैंक में काम करने वाले रिश्तेदार खोंचर करेंगे। बेटे का ब्याह किसी दूसरे जिले में ठीक कर दीजिये तो जिन्होंने अपने बच्चों का ब्याह अपने ही जिले में कर दिया है वो आपको खोंचर करेंगे। अगर आप स्कूटर खरीद लाईयेगा तो बाईक चलाने वाले खोंचर करेंगे और अगर आपने जिम जाना शुरू कर दिया तो योगा क्लास वाले खोंचर करेंगे।
मोटा-मोटी यह विशेष योग्यता विकासशील देशों के लोगों में पाई जाती है। इसका जात, धर्म, लिंग, वर्ग  और उम्र से कोई लेना देना नहीं है। अपने भारतवर्ष को ही ले लीजिये आप। खोंचर करना एक सर्वव्यापी आचरण है। भारत का नागरिक खोंचर किये बिना रह ही नहीं सकता। पचपन प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है और सालों भर खेती आप कर नहीं सकते। जब खेत में पहले से ही फसल लगी हो तो ‘कन्ट्रोल एन’ दबा के आप नया खेत तो बना नहीं सकते। अब, जब फसल कटेगी तब जा के खेत खाली होगा। तो इस बीच आप तो खाली हैं। क्या कीजियेगा इस खाली समय का जिसमें पैसा भी खर्च नहीं हो, आनन्द भी आये और खाली समय भी सटा-सट कट जाये। तो खोंचर कीजिये और क्या। अब रहे बाकि पैंतालिस प्रतिशत लोग। अब इसमें से जो सरकारी कर्मचारी हैं उनके पास खोंचर करने का स्कोप सबसे ज्यादा है। कहा जाता है कि सरकारी नौकरी मिलना जितना कठिन है, उससे भी कठिन है किसी को उससे निकलवा देना। तो चपरासी से लेकर प्रधान सचिव तक इस पारम्परिक और कभी न लुप्त होने वाली कला के रियाज में लगे रहते हैं। चपरासी बिलम्बित लय में खोंचर करेगा, बीच का कर्मचारी मध्य लय में ओर आला अधिकारी द्रुत लय में। फिर बचे प्राईवेट सेक्टरों में काम करने वाले। तो यहाँ पर वे बडे़ बदकिस्मत हैं क्युँकि उनके पास खोंचर करने का ज्यादा स्कोप है नहीं। वहाँ खोंचर सिर्फ मैनेजमेंट कर सकता है। तो ऐसे लोग सामान्यतः शादी-ब्याह, छठ्ठी-छिल्ला में इस कला का प्रदर्शन कर काम चलाते हैं। अब बचे अपना रोजगार करने वाले लोग। तो ये वास्तव में खोंचर की दुनिया के असली जादूगर हैं। अगर आप खोंचर करना नहीं जानते तो कभी अपना रोजगार-व्यापार नहीं बढ़ा सकते।
अब इसमें एक सबसे ऊपर क्रीमी लेयर टाईप का एक लेयर है जिनकी संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है लेकिन भारतवर्ष की मीडिया और सोशल मीडिया इन्हीं खोंचरिस्टों की वजह से इतनी अमीर हो रही है कि आज हर मौकापरस्त इसमें शामिल होना चाहता है। इस क्रीमी लेयर खोंचरिस्ट्स की लिस्ट में सेलेब्रिटीज भी हैं, राजनेता भी हैं, अभिनेता भी हैं, सोशलिस्ट भी हैं, मार्क्सिस्ट भी हैं, कम्यूनिस्ट भी हैं, स्वयंभू सन्त भी हैं, टोपी-दाढ़ी वाले बडे़ कद के मौलाना-मौलवी भी है, चंदन-टीका वाले बडे़-बडे़ पण्डित, महन्त और बाबा भी हैं। इनका किया हुआ एक खोंचर दो-तरफा कार्य करता है। किसी लॉबी को बहुत फायदा पहुँचता है और किसी लॉबी को बहुत नुकसान।
यहाँ तक कि खोंचर करने की इस कला को व्यवसाय में भी सफलतापूर्वक समाहित कर लिया गया है। अब सिंघम बाबू को अपनी कोई फिल्म पिटती दिखाई देयी तो एक लॉबी उसी टाइम में इस फिल्म के बारे में, प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इतना खोंचर करेगी कि लोग उस फिल्म के प्रति उत्सुक हो जायेंगे। बहुत लोगों को तो ये भी नहीं पता कि इधर कुछ नेता जो नये सरकार की कार्यवाहियों और उनके सम्बन्धित मन्त्रियों का खोंचर करने में लगे रहते हैं, वो दरअसल प्रायोजित खोंचरिस्ट हैं।
इसे मैनेजमेन्ट गुरूओं की भाषा में निगेटिव पब्लिसिटी कहते हैं। आप एक आदमी को सौ रूपया दीजिये और कहिये कि वो पूरे मुहल्ले में प्रचार कर दे कि कल सुबह आप अपनेे घर से बाहर डान्स करने वाले हैं। मैं भरत मुनि का नाम दे के आपको चैलेन्ज करता हूँ, कोई नहीं आयेगा। लेकिन अगर आप उस आदमी को सौ रूपये देने का बाद ये कहें कि वह मुहल्ले में प्रचार कर दे कि अगली सुबह आप अपने घर के बाहर कपड़ा-फाड़ डान्स करेंगे तो कसम भरत मुनि कि, आधा मुहल्ले आपके घर के  बाहर आ के जमा हो जायेगा।
तो ऐसा नहीं है कि खोंचर सिर्फ तकलीफ देने के लिये किया जाता है। कई बार इससे बहुत फायदा भी होता है। अरविन्द केजरीवाल एण्ड पार्टी ने कांग्रेस का इतना खोंचर किया कि भाजपा पूर्ण बहुमत में आ गई। केजरीवाल को भी पता है कि भारत का नागरिक भ्रष्टाचार पर भाषण सुनते समय एकदम से क्रान्तिवीर का नाना-पाटेकर हो जाता है लेकिन सभा स्थल से बाहर निकलते ही शूल फिल्म के सयाजी शिन्दे बनने में उसे एक मिनट भी देर नहीं लगती है और वह तो पी.एम. बनने से रहे। अब इससे हुआ यह कि केजरीवाल के सामने एक नया विकल्प प्रस्फुटित हो गया। अब वह भारतिय राजनीति के परम्यूटेशन-कॉम्बीनेशन में एक ऐसे फैक्टर हैं जो अपने खोंचर करने की अद्भुत कला से सरकार पलट सकते हैं। जब कुछ लोग कहते हैं कि केजरीवाल दरअसल भाजपा के तरफ से के.ओ.डी. अर्थात् खोंचरिस्ट औन स्पेशल ड्यूटी हैं तो मुझे आश्चर्य नहीं होता। इससे शानदार और किफायती टूल और क्या हो सकता है कि आप बस बोल के, खोंचर कर के पचास-साठ साल तक राज करने वाली पार्टी का इतना बुरा हाल कर सकते हैं। अरे भाई, अरविन्द केजरीवाल कोई पहले खोंचरिस्ट थोडे़ न हैं। इसके पहले भी कई खोंचरिस्ट आये, फिर भी सरकार तो राज कर ही रही थी। वास्तव में यह उनका सेल्फ डेवेलप्ड टैलेन्ट है जिसे उन्होंने बडे़ प्यार से, बड़ी मेहनत से तराशा है।
तो यह सब लवेद उनके बारे में हुआ जिनके ग्रे-मैटर में खोंचर के कीटाणुओं की संख्या एक खास न्युनतम मात्रा से अधिक होती है। लेकिन जिनके ग्रे-मैटर में इसके कीटाणुओं की संख्या एक खास न्युनतम मात्रा से कम होती है उनका क्या? माना कि ऐस लोगों में लक्षण प्रकट नहीं होते तो ये सिद्यांत तो गलत हो जायेगा कि हर आदमी में खांेचर करने की अनिवार्य योग्यता होती है और योग्यता बिना परिणाम दिखाये सिद्ध नहीं की जा सकती है। आपने अपने घरों में, खेतों में, खलिहान में, गोदामों में, रेलवे स्टेशन की पटरियों पर, किराने की दुकानों में, होटलों में, ढ़ाबों में दो तरह के चूहे देखे होंगे। एक छोटा वाला जो खाता कम है सामान ज्यादा काटता है। और एक बड़ा वाला जो खाली खाने के फेर में रहता है और काटम-कुट्टम तभी करता है जब अनाज के डब्बे में घुसने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा हो। ये बड़ा वाला चूहा वही चूहा है जिसको ‘‘खाने में गलत क्या है, हम भी खाते थे’’ बोल कर बिहार के वर्तमान मुख्यमन्त्री हाल-फिलहाल विवादों के घेरे में आ गये थे। हम अभी छोटे वाले चूहे के काटम-कुट्टम वाली खतरनाक आदत की समीक्षा करेंगे।
दरअसल चूहे के आगे वाले दाँतों को ईश्वर ने बढ़ते रहने का श्राप दिया है जिसे ‘इनसीजर’ कहते हैं। चुहों के ये दाँत उसी तरह बढ़ते हैं जैसे हमारे नाखून तो चूहे उन दाँतों की लम्बाई को न बढ़ने देने के लिये उन्हें घिसते रहते हैं। एक तरह से फाईलिंग करते हैं जैसे लड़कियाँ अपने नाखुनों को निश्चित आकार में और लम्बाई में बनाये रखने के लिये फाईलिंग करती है। अब इन्सान के पास तो तरह-तरह का औजार है लेकिन चूहा बेचारा क्या करे। वह सामान कुतरता रहता है ताकि दाँत की घिसाई हो सके। अगर ऐसा नहीं करेगा तो कुछ महीनों में उसके आगे वाले दाँत इतने लम्बे हो जायेंगे कि उसे दो पैर पर चलना पडे़गा और अगर चूहा दो पैर पर चलने लगेगा तो विकास की सीढ़ी पर वेटिंग लिस्ट में खडे़ बन्दर तो शर्म से मर ही जायेंगे और साथ ही साथ डार्विन और लैमार्क के सिद्धान्तों की बखिया उधड़ जायेगी। अब चूहा ठहरा श्री गणेश की सवारी। तो ऐसा होना उसे भी अच्छा नहीं लगेगा। इसलिये वह सामानों को कुतर-कुतर कर दाँत घिसता रहता है।
अब जो मैं कहना चाह रहा हूँ उसका आधार मेरा अनुभव है और मानव शरीर विज्ञान के जानकार इससे बिल्कुल सहमत नहीं होगें। अब ना होगें, तो न हों। हैदराबादी बिरयानी मैं हैदराबाद ढूँढिये, नहीं मिलेगा। कश्मीरी पुलाव में कश्मीर ढूँढि़ये नहीं मिलेगा। उसी तरह इन्सान के दिमाग में हमेशा बढ़ते रहने वाले दाँत भी होते हैं, शरीर विज्ञान के विशेषज्ञ ढूँढेगे, कभी नहीं मिलेगा। और इन्सान के दिमाग के यही दाँत खोंचर करने के काम आते हैं। चुँकि ये बढ़ते रहते हैं इसलिये इन्हें चूहे की तरह घिसते रहना परम आवश्यक है। दिमाग के इन दाँतों से बातों, सिद्धान्तों, फलसफों, तर्को, विचारों, भावनाओं और उपदेशों को कुतरा जाता है। यही प्रक्रिया खोंचर करना कहलाती है। अब जो दूसरे की बातों और सिद्धान्तों को खोंचर करते रहते हैं उनके दिमाग के भीतर उगे खोंचर करने वाले ये दाँत बाहर की तरफ बढ़ते हैं और ऐसे लोगों में खोंचर करने वाले कीटाणुओं की संख्या थ्रेशहोल्ड अमाउन्ट से ज्यादा होती है। लेकिन जिस किसी भी इन्सान में इन कीटाणुओं की संख्या थ्रेशहोल्ड अॅमाउन्ट से कम होती है उनके दिमागों में ये दाँत भीतर की तरफ मुडे़ होते हैं और वे भीतर की तरफ ही बढ़ते हैं। ऐसे लोग दुसरों का खोंचर नहीं कर पाते और एकान्त में अपने को ही खोंचर करते रहते हैं। दार्शनिक, चिन्तक, कवि, लेखक माइग्रेन और रक्तचाप के मरीज इसी श्रेणी में आते हैं।
यहाँ तक कि इन्सान की पहली कलात्मक अभिव्यक्ति खोंचर के रूप में शुरू हुई थी जब उसने गुफाओं के दीवारों पर खरोंच मार-मार कर तरह-तरह का चित्र बनाना शुरू किया था। अन्दर दबी मानसिक ऊर्जा को जब निकास नहीं मिलता तब यह ऊर्जा मनुष्य को उद्वेलित करती है। तब मनुष्य इसे सृजन और रचनात्मक अभिव्यक्तियों में खर्च करता है ताकि यह ऊर्जा बाहर निकल सके। गायन, वादन, लेखन, चित्रकारी, मुर्तिकारी, कढ़ाई, बुनाई, शिल्पकारी और भी न जाने कितने कलात्मक कार्य हैं जिसके द्वारा आप अपनी मानसिक उर्जा को सृजन के क्रम में बाहर निकालते हैं। इन सारे कार्यों में एक खास बात यह है कि जितनी मानसिक उर्जा खर्च होती है उससे दुगुनी फिर से बन भी जाती है जबकि खोंचर एक ऐसा कार्य है जिसमें मानसिक उर्जा का केवल निकास होता है।
सन्सार में कोई ऐसा काम नहीं है जिसमें खोंचर नहीं किया गया हो। यह एक वैश्विक प्रक्रिया है। खुद अमेरिका के पास परमाणु बम है लेकिन अगर भारत जैसे देश इसे अपने पास रखना चाहेंगे तो वो खोंचर करेगा। चीन भी खोंचर करेगा, जापान भी करेगा। जर्मनी, इटली, फ्रांस, सब खोंचर करेंगे। ऐलोपैथ का डॉक्टर हेम्योपैथी और आयुर्वेद को खोंचर करेगा। मूल तौर पर मैं यहाँ इस लेख में कर क्या रहा हूँ ? जी हाँ, बिल्कुल सही समझे आपलोग। मैं खोंचर कर रहा हूँ, और क्या। तो, सौ बात की एक बात- ‘‘खोंचर कीजिये, सुख से रहिये!’’
‘‘निर्मल अगस्त्य’’
8 जनवरी 2015
पटना