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Sunday, January 5, 2014

"मेरी उम्र की दीवार पर "

आओ ---
तुम भी लिखो,
मेरी उम्र की दीवार पर।

मेरी उम्र
जो गुज़रती गयी दर-बदर,
कैसे बयां हो?
कि बस एक दीवार है
जिसपे पहली बार
कुछ बीस बरस पहले
लिखा था किसी ने-
"मुझे तुमसे प्यार है !"

वो तहरीर, वो लिखावट
और वही दीवार,
 दर-बदर!
ये कैसे बयां हो?

यूँ ही साल दर साल
लिखते रहे लोग
मेरी उम्र की दीवार पर,
अपना नाम और
मेरा नाम,
कुछ दिल की आकृति से घेरों में,
जो टूटे
तो टूटे बस उनके लिए।

नाम मेरा रहा
उसी  दिल की आकृति में
ख़ामोश!
जैसे मेरी उम्र की दीवार
रह गयी ख़ामोश
दर-बदर गुज़रती हुई।

सब उसी यक़ीन से
निशानी छोड़ आये
कि जैसे लिखावट और वादे
एक ही चीज़ हों,
बस मेरी उम्र जानती है
और उम्र की दीवार
कि बस लिखावट
रह गयी है बाकी
अब वादे कैसे बयां हो।

तुम ख़ुद को देखो
तो तुम
नयी-नयी आयी हो,
मैं ख़ुद को देखूँ
तो तुम नयी नहीं आयी हो
जो इतनी  संजीदा हो!
और दूर-दूर सहमी-सहमी सी
जैसे बारिश में भींगती।
एक बार तो लिख कर देखो-
अपना नाम, फिर मेरा नाम
दिल की आकृति से घेरों में।

दीवारों से क्या रिश्ता
उम्र से क्या नाता,
और ऐसे भी बीतती है
तो बीतने दो,
ये मेरी उम्र है!
तुम बस लिखो
कि दो कदम पे तक़ल्लुफ़ है
और दो हाथ पे स्याही
मेरी उम्र की दीवार पर तुम भी,
तुम भी अपना नाम लिखो,
और वादे?
वादे तो भूल जाने का
मुकम्मल सामान हैं।

दिल की आकृति से घेरों में
एक इबादत तुम भी लिखो
मेरी उम्र की दीवार पर,    
तुम भी लिखो
बस उसी यक़ीन से,
तुम भी लिखो
उसी शिद्दत से,
निशानी छोड़ कि तहरीर और अहद
एक ही तो चीज़ है।
घेरों की परवाह
तुम्हे क्यूँ कर हो,
वैसे भी अब तक उन घेरों में
उन दिल की आकृति के घेरों में
बस मेरा नाम ही बाकी है,
मेरी उम्र की दीवार पर
गुज़रती आ रही है जो,
दर-बदर!
ये कैसे बयां हो।           

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