स्वीकार करने की सुविधा
मेरे भीतर छुपे प्रेत को है,
आकांक्षा का प्रेत.
जो हर बार
किसी डरावनी सी शक्ल वाली
ठूँठ से कूद कर
मेरे कन्धों पर
जम कर बैठ जाता है,
क्यूंकि , इनकार करने का अधिकार
मुझे प्राप्त नहीं है
और स्वीकार करने की सुविधा
मेरे भीतर छुपे प्रेत को है,
प्रश्न करना उसका शगल है
और उत्तर देने में
मौन का टूटना मेरी नियति
सापेक्ष है ये सम्बन्ध, सार्वभौम सत्य !
निरपेक्ष है
उस प्रेत की जटिलता।
पारदर्शिता के वावजूद भी
उसे छूना संभव नहीं
जैसे सपनों को बोना।
एक तहज़ीब के तहत मैं मनुष्य हूँ
और एक मिथक की तरह वो प्रेत है,
मेरे कन्धों पर सवार
प्रश्न पूछता लगातार
मौन-हन्ता मैं बार-बार.