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Friday, December 27, 2013

"इन्हें अकेले लौटने दो"

नज़रें हैं,
नज़रों को बहानों के सहारे रखना
बिलकुल ख़ामख़याली वाली बात है।

कोई किसी को देखता है
और यह क़तई ज़रूरी नहीं
कि घर बसाने के लिए ही देखता हो।
हालाँकि घर बसाने का मसला
देखने से शुरू तो हो ही सकता है
लेकिन सिर्फ़ देखने भर से शुरू हो
यह ज़बरदस्ती है।

नज़रें  तो,
आसमान भी देखती हैं
दरख़्त भी देखती हैं
श्मशान भी देखती हैं,
नजरें ही हैं
इन्हें जाने दो,
चेहरे हैं
इन्हें भी आने-जाने दो,
कहानियाँ क्या गढ़ना
रोमांच के साथ
क्यूँ धक्कामुक्की करते हो।

उसके लिए भीड़ है
क़तारें हैं
मंदिरों-मस्जिदों और
शराबखानों की सीढ़ियाँ हैं,
किस-किस को घर लाओगे
किस-किस के साथ घर बसाओगे
कितनों के साथ बंधोगे
कितने रिश्तों को सहेजोगे।

सड़क को, पेड़ों को, तारों को
ठेलागाड़ी, चकाचौंध, ठेलम-ठेल
दुआ-सलाम, रफ़्तार-विराम, भीड़ को,
चौराहों को, इशारों को, विचारों को,
इश्तेहारों में भटक गए गलियारों को
घर के भीतर कैसे जियोगे।

इन्हे वहीं छोड़ के आ जाते हैं हम
अपने-अपने जड़त्व के साथ,
फिर चेहरे क्यूँ ले आते हैं हम
रिश्ते जमाने के लिए
पन्नों और तस्वीरों वाली अलबम पर
निभाने के लिए,
कोई किसी को देखता है
तो सम्भव है बस
देखने भर के लिए देखता हो।

नज़रें ही हैं,
इनके अस्तित्व को
ख़ामख़ा के हवाले मत करो,
ये जैसे जाते हैं
वैसे ही इनको
अकेले लौट आने दो।    

Saturday, July 27, 2013

मैं वक़्त से कहता हूँ.

मैं वक़्त से कहता हूँ ,
गाहे-बगाहे तू भी फ्लश चला लिया कर!
वो दो साल पहले जो
आवाज़ में आसमान घोल के गाती थी,
उसकी निगाहों में मोच आ गयी है.
जबकी मैं उसकी ओर बढ़ता हूँ तो वो समझती है
मैं बेशरम सा वहीं खड़ा कोई मफ़लर हिला रहा हूँ .

वो दरिया के किनारे जिस स्कूल में मैंने
पहली बार इन्सान को  मुर्गा बनते देखा था,
वहीं जहाँ टिफ़िन के समय हम अपना पेट लंच से कम
और शेह्तूतों से ज़्यादा भरते थे-
उस स्कूल की जगह कब का सुपर मार्केट बन गया.
सुना है वो चाट वाला भी मर गया
जिसके पैसे हमने अब तक नहीं चुकाए।

ऐसे ढेरों किस्से हैं , भरे-भरे!
लवनी के लवनी टंगे
भूत के ताड़ों पे और
मैं वक़्त से कहता हूँ ,
गाहे-बगाहे तू भी फ्लश चला लिया कर!

इतना सा ही उधार तो रह गया है
कि पूरा जीवन उधार हो गया है,
बेशर्मी के शेह्तूत, डाल-डाल, पोर-पोर खिले हैं.
कुछ इसी महीने के हैं - हरे-हरे! कच्चे !
जिसे पाने की उधार की आस में
मैं स्टेव पर कुछ क्रोशे, कुछ मिनम
और कुछ सेमी-क्वेवर बो रहा हूँ,
उस गायिका के सुरों से भी ज़्यादा खट्टे
कुछ सूर्ख़! पके! रस भरे!
पिछले महीनों के.

अब तो आती हुई साँसों को भी कहता हूँ -
कि दे जाना है तो दे जाओ
लौटा नहीं पाउँगा,
इसलिए मैं वक़्त से कहता हूँ कि
गाहे-बगाहे तू भी फ्लश चला लिया कर!

पुल के नीचे से ट्रेन बस गुज़र रही है
और दिल्ली का ये ट्रिप, दोस्त के लिए शादी का उपहार
सब निपट रहा है
एक और शेह्तूत के हरे गुच्छों से.
तिलक ब्रिज पर गाडी थोड़ी धीमी हो रही है,
हो सके तो मेरे लौटने के पहले
एक बार फ्लश चला ले.
तेरी आस में टँगी लवनियाँ
हवा के हिलकोरे पर
डुबुक-डुबुक करती हैं
या पता नहीं मुझे डूब जा-डूब जा कहती हैं.
मैं वक़्त से कहता हूँ ,
गाहे-बगाहे तू भी फ्लश चला लिया कर!