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Sunday, January 19, 2014

वो दुनियाँ अगर ---

वो दुनियाँ---
विश्लेषण की कैंची से परे!
तर्क के सैंड पेपर से
दूर हम खड़े,
जो था बस कल्पना थी---
मन था--- सपने थे।

जहाँ परियाँ थीं झूलों पर
बोतल में बंद जिन्न था,
भूत, पिशाच, अमावस की रात में
रोटी-प्याज माँगने वाली बुढ़िया
और झाड़ू पर  उड़ने वाली चुड़ैलें थीं।

बचपन की वो दुनियाँ
जो पीछे छूट गयी
कहानियों वाली दुनियाँ!
कॉमिक्सों वाली दुनियाँ!
रेडियो अख़बारों वाली दुनियाँ!

वो गुड्डे-गुड़ियों की शादी की दुनियाँ
वो परियों की कहानियों की दुनियाँ,
वो शरबत की दुनियाँ
जिसके लिए  निम्बू
बड़ी बहादुरी से चुराये थे हमने।

वो पहली-पहली बार पिकनिक की दुनियाँ
जिसके लिए चूल्हे जलाये थे हमने,
वो पुड़ी जो कच्ची भी पक्की भी प्यारी थी
वो सब्ज़ी जो हम मिनटों में चट कर जाते थे,
फिर बर्तनों से टन-टन लड़ाई की दुनियाँ।

वो काग़ज़ी बन्दूकों से ढिच्क्यों का खेला
वो दुर्गाबाड़ी में चैती-दुर्गा का मेला
उस मेले में संवरकी के बेर की चटनी
खिचड़ी के परसाद के लाइन का रेला,
वो पानी में कमसिन मूछों की दुनियाँ
वो मूछों में सनसनाती पानी की दुनियाँ,
वो दुनिया तुम्हारी थी वो दुनियाँ थी मेरी
कहाँ छोड़ आये चकल्लस की दुनिया।

(मेरे कविता संग्रह - "इसी कुछ में" से )






Thursday, January 9, 2014

एक था. . . 

एक था कभी-
भीतर की तरफ़ मुड़ा हुआ,
एक मुट्ठी आसमान लेकर
निकल पड़ता था रोज़ सवेरे।

जब सारे शहर में
दिनचर्या की प्रार्थना गूँजती थी
वह शहर के अंतिम छोर पर
किसी बेनाम खंडहर की दीवारों को
माउथ-ऑर्गन सुनाया करता था,
एक मुट्ठी आसमान
छुई-मुई के पत्तों को ओढ़ा कर।

पुनः जब शहर
थपकियों के संगीत में
हौले-हौले हिल रहा होता
वह लौट आता था, चुपचाप!
उस एक मुट्ठी आसमान में
एक चुटकी सूरज छुपा कर।

एक था कभी-
जिसने चिड़ियाँ को
नर्गिस में बदलते देखा था शायद,
जिसने निर्वासित गायों को
कई बार घास के मैदान में
ले जा के छोड़ा था,
उसके कपड़े
बहुत साफ़ तो नहीं होते थे लेकिन
उसे गन्दा भी नहीं कहा जा सकता था,
सब की तरह वह
चप्पल भी पैरों में ही पहनता था,
थोड़े बहुत आलाप-तान के गुनगुनाहट
में तो रहता था वो
लेकि किसी ने उसे मन्त्रोच्चार करते
नहीं सुना था,
फिर भी लोगों की हुनर से
पागल था, सनकी था, औघड़ था।

उसने नदी की लहरों पर
चित्रकारी की थी,
पेड़ों को कवितायें सुनाई थी,
उसने तितलियों का
नृत्य भी देखा था शायद,
उसकी  चर्चा होती रहती थी
लेकिन वह ख़बरों में तो कहीं नहीं था!

और एक दिन वह
अचानक लापता हो गया!
फिर धीरे-धीरे
घर ख़र्च के हिसाब की कॉपी में
बच्चे की स्कूल की डायरी में
पत्नि के श्रृंगार सामग्री की सूची में
पिता के राम नाम लिखने वाले पत्ते में
माँ की पूजा के लिए
बेलपत्रों और आम्रपल्लवों की हरियाली में
रिश्तेदारों की शिकायतों की पोटलियों में
फ़ेमिली डॉक्टर की पर्चियों में
और जन्मोत्सव से श्राद्ध तक के आमंत्रण पत्रों में
उसके टुकड़े मिले!
एक था कभी-    

Sunday, January 5, 2014

"मेरी उम्र की दीवार पर "

आओ ---
तुम भी लिखो,
मेरी उम्र की दीवार पर।

मेरी उम्र
जो गुज़रती गयी दर-बदर,
कैसे बयां हो?
कि बस एक दीवार है
जिसपे पहली बार
कुछ बीस बरस पहले
लिखा था किसी ने-
"मुझे तुमसे प्यार है !"

वो तहरीर, वो लिखावट
और वही दीवार,
 दर-बदर!
ये कैसे बयां हो?

यूँ ही साल दर साल
लिखते रहे लोग
मेरी उम्र की दीवार पर,
अपना नाम और
मेरा नाम,
कुछ दिल की आकृति से घेरों में,
जो टूटे
तो टूटे बस उनके लिए।

नाम मेरा रहा
उसी  दिल की आकृति में
ख़ामोश!
जैसे मेरी उम्र की दीवार
रह गयी ख़ामोश
दर-बदर गुज़रती हुई।

सब उसी यक़ीन से
निशानी छोड़ आये
कि जैसे लिखावट और वादे
एक ही चीज़ हों,
बस मेरी उम्र जानती है
और उम्र की दीवार
कि बस लिखावट
रह गयी है बाकी
अब वादे कैसे बयां हो।

तुम ख़ुद को देखो
तो तुम
नयी-नयी आयी हो,
मैं ख़ुद को देखूँ
तो तुम नयी नहीं आयी हो
जो इतनी  संजीदा हो!
और दूर-दूर सहमी-सहमी सी
जैसे बारिश में भींगती।
एक बार तो लिख कर देखो-
अपना नाम, फिर मेरा नाम
दिल की आकृति से घेरों में।

दीवारों से क्या रिश्ता
उम्र से क्या नाता,
और ऐसे भी बीतती है
तो बीतने दो,
ये मेरी उम्र है!
तुम बस लिखो
कि दो कदम पे तक़ल्लुफ़ है
और दो हाथ पे स्याही
मेरी उम्र की दीवार पर तुम भी,
तुम भी अपना नाम लिखो,
और वादे?
वादे तो भूल जाने का
मुकम्मल सामान हैं।

दिल की आकृति से घेरों में
एक इबादत तुम भी लिखो
मेरी उम्र की दीवार पर,    
तुम भी लिखो
बस उसी यक़ीन से,
तुम भी लिखो
उसी शिद्दत से,
निशानी छोड़ कि तहरीर और अहद
एक ही तो चीज़ है।
घेरों की परवाह
तुम्हे क्यूँ कर हो,
वैसे भी अब तक उन घेरों में
उन दिल की आकृति के घेरों में
बस मेरा नाम ही बाकी है,
मेरी उम्र की दीवार पर
गुज़रती आ रही है जो,
दर-बदर!
ये कैसे बयां हो।