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Wednesday, December 31, 2014

"ये बात और है - कि शायद कुछ भी नहीं"


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
जो ये दुआ कर रहे थे
कि जल्दी से चली जाए ये ठंड
और मिल जाए ये सोचने का बहाना
कि ज़िंदगी काट जाती है
कम्बल और अलाव के बिना,
उनको फ़र्क पड़ा क्या।


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
कि मोहल्ले में
एके दबंग युवक बीच रास्ते में
अपनी गाड़ी रोक कर
सबको दे रहा था गालियाँ
और शराब से ज़्यादा ताकत के नशे में चूर
बगल से गुजरते हुए हर आम इन्सान को
ज़िंदा होते हुए भी
अपने को मृत और
शरीर में पांच लीटर लहू,
दो हाथ, दो पाँव
और एक दिमाग़ होते हुए भी
अपने को अनाकृत मान लेने का
अभ्यास करा रहा था।
जो लोग मौन थे
वो उसकी जाति के थे
जो लोग मज़ा ले रहे थे
उनकी कोई जात नहीं थी
और जो लोग गालियाँ सुन कर भी
परिवार के बारे में सोच कर बढ़ जा रहे थे
वो किसी भी जाति के हों
चाहे कायस्थ, भूमिहार, राजपूत,
ब्राह्मण, यादव, बनिया, धानुक, कुर्मी
दुसाध, डोम, चमार या कुछ और
ग़ाली सुनते समय एक ही जाती के थे।
नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,


क्या ये नया था
कि इस शाम हम
पिछले साल से महंगी शराब पीने वाले थे?
या ये नया था कि
कैलेंडर के कुछ अंक बदल जाने वाले थे ?
या फिर ये नया था
कि "भूल जाओ ये छोटी मोटी बात"
कहने वाले कुछ और नए मित्र बनने वाले थे ?
या शायद ये नया था
कि ऐसी सूअर से बिना लड़े
घर लौट आने कि कला पर
पिता से शाबासी मिलने वाली थी।  


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
कि पार्टी में नृत्य हो रहा था
लेकिन एक नृत्य मेरे जेहन में हो रहा था
कि आख़िर आज बारह बजे के बाद
नया क्या हो जाएगा,
पार्टी में खाना हो रहा था
और एक सवाल मुझे खा रहा था
कि सही होते हुए भी
हार मान लेना या बच के निकल जाना
कला क्यूँ  हो गया है,
पार्टी में सिगरेट सुलग रही थी
और मेरा अन्तर्मन
इस बात पर सुलग रहा था
कि भीड़ या तो बेबस या एकदम उन्मादी
क्यूँ होती है।


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
मैं पहले  कवितायेँ लिखता था
आज भी लिख रहा हूँ,
मैं पहले भी बिखरता रहा था
आज भी बिखर रहा हूँ,
मैं पहले भी कहता रहा था
कि हथियार और असलहे से
तस्वीर नहीं बनती, बस तारीख़ बनती है,
ये आज भी कह रहा हूँ।


चूँकि सभी कह रहे थे
तो मैंने भी सोचा कि
कुछ नया होने वाला है,
ये बात और है -
कि शायद कुछ भी नहीं।

''निर्मल अगस्त्य''

Tuesday, November 25, 2014

‘‘राम बनना है तो इनव्हेस्ट कर!’’


न को भी एजेन्टस् की आवश्यकता नहीं है। कोई उसका एजेन्ट बन भी नहीं सकता।
तुम्हारी एजेन्सी की लुटिया डूबो देगा ये कम्बख़्त मन। यह तुम्हारे अन्दर होकर भी तुम्हारी पहुँच से बाहर है।
इस पर विवेचना करोगे तो तुम स्वाद से बिछड़ जाओगे। चाहे वह सन्देश हो या किसी का रूप।
गुरू कहते रहे- ‘‘विवेक मन की लगाम है।’’
लो... पकड़ो !!!
अब कसते रहो लगाम...!
गोया तुम्हारा जन्म ही हुआ है लगाम कसने और नाल ठोंकने के लिये। सभी जानते हैं कि राम एक ही थे जो कभी मर्यादापुरूषोत्तम बन कर पृथ्वी पर अवतरित हुये थे। गुरूओं को आभास है कि राम दुबारा नहीं आने वाले अतः, उन्होंने राम बनाने का ठेका ले रखा है। उन्होंने कारखाने डाल रखे हैं, उनके वर्कशॉप में पर-वचन निरन्तर चल रहा है। पर-वचन...! जो ज्ञान दूसरों के लिये है। अपने लिये सुरा है, सुन्दरी है, मेवा है, कलेजी है।
अब उनको आभास है कि राम तो आयेगा नहीं तो क्रॉस व्हेरीफि़केशन का झंझट तो है ही नहीं। तीन महीने की एक्सटेन्सिव ट्रेनिंग और आधी जमापूंजी ख़र्च करने के बाद तुम्हारा सतर्क दिमाग़ ख़ुद ही बोल पड़ेगा कि अब कौन सी तुम्हारी सीता का हरण होने वाला है, और तुम्हारा बाप भी किसी कैकयी के फेर में नहीं पड़ने वाला। एक कौशल्या को सम्भालने में उसका पूरा शरीर टिस-टिस करता रहता है। आर्थराइटिस, स्पॉन्ड्लाइटिस, गैस्ट्राईटिस और भी न जाने कौन-कौन सा ‘टिस’।
दिमाग़, बही खाते को देखकर कहेगा- चलो बहुत हुआ... हो गये तुम राम... समझ गये मन को पकड़ने का गुर...। गुरू को प्रणाम खींच और चुपचाप निकल ले वरना प्रमोशन और इन्क्रीमेन्ट की गाड़ी पकड़ने की कला भूल जाओगे। तुम भी गदगद होकर सोचोगे- हाँ भई, कोई मशीन थोड़े ना बना है यह नापने के लिये कि तुमने मन को पकड़ के रखा है या नहीं या पकड़ कर रखा है तो कहाँ रखा है। तीस से चालीस लाख ख़र्च कर के जब डिप्टी कलक्टर बना जा सकता है तो किसी आश्रम में डेढ़ करोड़ खर्च कर के राम तो शर्तिया बना जा सकता है।
प्रोडक्ट मैनेजर बने रहना तो इन्सान का पहला धर्म है। इतना मँहगा प्रोडक्ट भला ख़राब होता है क्या। लो जी... तुम मन को जीत गये। राम बन गये। जाओ आज छुट्टी।
अभी-अभी ‘इन्सेपशन’ रीलिज़ हुई है। जा के देख आओ। तुम त्रेता युग के राम से ज्यादा धनी हो।
तुम दीक्षा सम्पन्न होने के उपरान्त ‘अवतार’ और और ‘इन्सेप्शन’ भी देख सकते हो। सीता घर में भाड़ झोंक रही है। तुम चौपाटी पर अपनी सेकेटरी के साथ रोमान्स कर सकते हो।
तुम राम से ज्यादा क्वालीफ़ायड हो। तुम्हारा रिज़्यूमे राम से ज्यादा तगड़ा है। तुम्हारी डिग्री ऑक्सफ़ोर्ड से मान्यता प्राप्त है। बेचारे राम क्या, उनके बाप दशरथ ने भी ऑक्सफ़ोर्ड का नाम नहीं सुना होगा।
तो इतनी मँहगी प्रक्रिया से गुज़रनी पड़ती है मन को पकड़ पाने के लिये। जितनी तेज़ी से पैसे ख़र्च होंगे उतनी ही तेज़ी से तुम सीखते जाओगे। नहीं भी सीखोगे तो तुम मान लोगे कि तुम सीख रहे हो।
कोई तुम्हारे सर पर हाथ रखकर कहे- तुम्हारे अन्दर बुद्ध छिपा बैठा है। तुम बुद्ध हो।
तुम उसे पागल समझ कर भगा दोगे, जबकि ऐसा बिल्कुल सम्भव है कि तुम वाकई बुद्ध का ही अवतार हो। बुद्ध को भी तुम्हारी तरह राजयोग मिला था। पर तुमने अभी इनव्हेस्ट नहीं किया इसलिये तुम अपने अन्दर के प्रोडक्ट की कीमत नहीं समझ रहे हो।
अगर तुम्हारी बीबी तुम्हारे नौकर के साथ भाग जाये, तुम्हारा बेटा बलात्कार कर फाँसी चढ़ जाये और तुम्हारा नौकर तुम्हारा सब कुछ हड़प ले और तब वही आदमी तुम्हारे सर पर हाथ रखकर तुम से कहे कि तुम बुद्ध हो, तुम्हारे अन्दर बुद्ध का अंश है तो तुम तत्क्षण उसे बोधि वृक्ष मान कर उसके कदमों में लम्बलेट हो जाओगे और कहोगे- ‘‘तुम अब कहाँ थे गुरू।’’
गुरू कहीं नहीं था। वो तो बस तुम्हारे इनव्हेस्टमेन्ट का इन्तज़ार कर रहा था। तुमने बीबी इनव्हेस्ट कर दी, तुमने बेटा इनव्हेस्ट कर दिया, तुमने प्रापर्टी इनव्हेस्ट कर दी, उसने तुम्हें बुद्ध बना दिया। तुम्हें समझा दिया कि तुम मन को पकड़ने का सार जान गये हो। जाओ-इस सर्टिफि़केट को अच्छी तरह मढ़वा कर अपने गले में टाँग लो। अभी तुम्हारे आगे-पीछे चेलों की भीड़ लगने वाली है इसलिये इसकेे पहले पास के मल्टीप्लेक्स में लगी ‘इन्सेप्शन’ देखकर घर जाना। सपने में सपना, सपने में सपना का मज़ा ले के जाना।
ये सुविधा राम को नसीब नहीं थी भाई और ‘इन्सेप्शन’ जैसी फि़ल्म दस रूपये की सी.डी. पर कभी समझ में नहीं आयेगी तुझे। चार सौ रूपये का टिकट ले, तब तू मुहल्ले में जा के कह सकेेगा कि तुझे ‘इन्सेप्शन’ समझ में आ गई है।
लोग पूछेंगे- ‘‘काहे का ‘इन्सेप्शन’? कहीं यह ‘कोन्ट्रासेप्शन’ की बड़ी बहन तो नहीं है?’’ तुम कहोगे- ‘‘नहीं यारों, ‘इन्सेप्शन’... ‘इन्सेप्शन’... माने... मल्टीप्लेक्स वाली ‘इन्सेप्शन’...’’
लोग कहेंगे- ‘‘धत्त तेरे की! ऐसा बोल ना कि ‘इन्सेप्शन’... देखा।’’ मल्टीप्लेक्स सुनते ही वे लोग भी समझ जायेंगे तू किस ‘इन्सेप्शन’ की बात कर रहा है और तू तो चार सौ का टिकट कटाते ही समझ गया होगा- ‘इन्सेप्शन’...!
‘इन्सेप्शन’...! माने ‘इन्सेप्शन’...! और क्या!
‘‘निर्मल अगस्त्य’’
‘उपन्यास अंश’ ‘‘बस एक तीली’’ से
तुम्हारी एजेन्सी की लुटिया डूबो देगा ये कम्बख़्त मन। यह तुम्हारे अन्दर होकर भी तुम्हारी पहुँच से बाहर है।इस पर विवेचना करोगे तो तुम स्वाद से बिछड़ जाओगे। चाहे वह सन्देश हो या किसी का रूप। गुरू कहते रहे- ‘‘विवेक मन की लगाम है।’’लो... पकड़ो !!!अब कसते रहो लगाम...!गोया तुम्हारा जन्म ही हुआ है लगाम कसने और नाल ठोंकने के लिये। सभी जानते हैं कि राम एक ही थे जो कभी मर्यादापुरूषोत्तम बन कर पृथ्वी पर अवतरित हुये थे। गुरूओं को आभास है कि राम दुबारा नहीं आने वाले अतः उन्होंने राम बनाने का ठेका ले रखा है। उन्होंने कारखाने डाल रखे हैं, उनके वर्कशॉप में पर-वचन निरन्तर चल रहा है। पर-वचन...! जो ज्ञान दूसरों के लिये है। अपने लिये सुरा है, सुन्दरी है, मेवा है, कलेजी है।अब उनको आभास है कि राम तो आयेगा नहीं तो क्रॉस व्हेरीफि़केशन का झंझट तो है ही नहीं। तीन महीने की एक्सटेन्सिव ट्रेनिंग और आधी जमापूंजी ख़र्च करने के बाद तुम्हारा सतर्क दिमाग़ख़ुद ही बोल पड़ेगा कि अब कौन सी तुम्हारी सीता का हरण होने वाला है, और तुम्हारा बाप भी किसी कैकयी के फेर में नहीं पड़ने वाला। एक कौशल्या को सम्भालने में उसका पूरा शरीर टिस-टिस करता रहता है। आर्थराइटिस, स्पॉन्ड्लाइटिस, गैस्ट्राईटिस और भी न जाने कौन-कौन सा ‘टिस’।दिमाग़, बही खाते को देखकर कहेगा- चलो बहुत हुआ... हो गये तुम राम... समझ गये मन को पकड़ने का गुर...। गुरू को प्रणाम खींच और चुपचाप निकल ले वरना प्रमोशन और इन्क्रीमेन्ट की गाड़ी पकड़ने की कला भूल जाओगे। तुम भी गदगद होकर सोचोगे- हाँ भई, कोई मशीन थोड़े ना बना है यह नापने के लिये कि तुमने मन को पकड़ के रखा है या नहीं या पकड़ कर रखा है तो कहाँ रखा है। तीस से चालीस लाख ख़र्च कर के जब डिप्टी कलक्टर बना जा सकता है तो किसी आश्रम में डेढ़ करोड़ खर्च कर के राम तो शर्तिया बना जा सकता है। प्रोडक्ट मैनेजर बने रहना तो इन्सान का पहला धर्म है। इतना मँहगा प्रोडक्ट भला ख़राब होता है क्या। लो जी... तुम मन को जीत गये। राम बन गये। जाओ आज छुट्टी।अभी-अभी ‘इन्सेपशन’ रीलिज़ हुई है। जा के देख आओ। तुम त्रेता युग के राम से ज्यादा धनी हो।तुम दीक्षा सम्पन्न होने के उपरान्त ‘अवतार’ और और ‘इन्सेप्शन’ भी देख सकते हो। सीता घर में भाड़ झोंक रही है। तुम चौपाटी पर अपनी सेकेटरी के साथ रोमान्स कर सकते हो।तुम राम से ज्यादा क्वालीफ़ायड हो। तुम्हारा रिज़्यूमे राम से ज्यादा तगड़ा है। तुम्हारी डिग्री ऑक्सफ़ोर्ड से मान्यता प्राप्त है। बेचारे राम क्या, उनके बाप दशरथ ने भी ऑक्सफ़ोर्ड का नाम नहीं सुना होगा।तो इतनी मँहगी प्रक्रिया से गुज़रनी पड़ती है मन को पकड़ पाने के लिये। जितनी तेज़ी से पैसे ख़र्च होंगे उतनी ही तेज़ी से तुम सीखते जाओगे। नहीं भी सीखोगे तो तुम मान लोगे कि तुम सीख रहे हो।कोई तुम्हारे सर पर हाथ रखकर कहे- तुम्हारे अन्दर बुद्ध छिपा बैठा है। तुम बुद्ध हो।तुम उसे पागल समझ कर भगा दोगे, जबकि ऐसा बिल्कुल सम्भव है कि तुम वाकई बुद्ध का ही अवतार हो। बुद्ध को भी तुम्हारी तरह राजयोग मिला था। पर तुमने अभी इनव्हेस्ट नहीं किया इसलिये तुम अपने अन्दर के प्रोडक्ट की कीमत नहीं समझ रहे हो।अगर तुम्हारी बीबी तुम्हारे नौकर के साथ भाग जाये, तुम्हारा बेटा बलात्कार कर फाँसी चढ़ जाये और तुम्हारा नौकर तुम्हारा सब कुछ हड़प ले और तब वही आदमी तुम्हारे सर पर हाथ रखकर तुम से कहे कि तुम बुद्ध हो, तुम्हारे अन्दर बुद्ध का अंश है तो तुम तत्क्षण उसे बोधि वृक्ष मान कर उसके कदमों में लम्बलेट हो जाओगे और कहोगे- ‘‘तुम अब कहाँ थे गुरू।’’गुरू कहीं नहीं था। वो तो बस तुम्हारे इनव्हेस्टमेन्ट का इन्तज़ार कर रहा था। तुमने बीबी इनव्हेस्ट कर दी, तुमने बेटा इनव्हेस्ट कर दिया, तुमने प्रापर्टी इनव्हेस्ट कर दी, उसने तुम्हें बुद्ध बना दिया। तुम्हें समझा दिया कि तुम मन को पकड़ने का सार जान गये हो। जाओ-इस सर्टिफि़केट को अच्छी तरह मढ़वा कर अपने गले में टाँग लो। अभी तुम्हारे आगे-पीछे चेलों की भीड़ लगने वाली है इसलिये इसकेे पहले पास के मल्टीप्लेक्स में लगी ‘इन्सेप्शन’ देखकर घर जाना। सपने में सपना, सपने में सपना का मज़ा ले के जाना।ये सुविधा राम को नसीब नहीं थी भाई और ‘इन्सेप्शन’ जैसी फि़ल्म दस रूपये की सी.डी. पर कभी समझ में नहीं आयेगी तुझे। चार सौ रूपये का टिकट ले, तब तू मुहल्ले में जा के कह सकेेगा कि तुझे ‘इन्सेप्शन’ समझ में आ गई है।लोग पूछेंगे- ‘‘काहे का ‘इन्सेप्शन’? कहीं यह ‘कोन्ट्रासेप्शन’ की बड़ी बहन तो नहीं है?’’ तुम कहोगे- ‘‘नहीं यारों, ‘इन्सेप्शन’... ‘इन्सेप्शन’... माने... मल्टीप्लेक्स वाली ‘इन्सेप्शन’...’’ लोग कहेंगे- ‘‘धत्त तेरे की! ऐसा बोल ना कि ‘इन्सेप्शन’... देखा।’’ मल्टीप्लेक्स सुनते ही वे लोग भी समझ जायेंगे तू किस ‘इन्सेप्शन’ की बात कर रहा है और तू तो चार सौ का टिकट कटाते ही समझ गया होगा- ‘इन्सेप्शन’...!‘इन्सेप्शन’...! माने ‘इन्सेप्शन’...! और क्या!‘‘निर्मल अगस्त्य’’‘उपन्यास अंश’ ‘‘बस एक तीली’’ से

Sunday, November 16, 2014

‘‘मौत किश्तोें में’’

‘‘मौत किश्तोें में’’

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मेरे बुजुर्गों ने कहा, हमेशा ही कहा कि - ‘‘बीती ताहे बिसारिये, आगे की सुध लेय...!’’ बात अच्छी है, श्रवणीय है, पठनीय है। लेकिन क्या ये हर मसले में अनुकरणीय भी है? हम उस हर घटना को ज़रूर बिसार देने के पक्ष में हैं जो, हमारे साथ एक या दो बार घटती है। जिसको दिमाग की कोशिकाओं के पीपे में सोच की इंजाइम डाल कर सड़ाने से, फर्मेन्ट करने से कोई अल्कोहल नहीं बनता कि थोड़ा झूम लिया जाये। बल्कि ज़हर बनता है। लेकिन जो दुर्घटना हमारे साथ हर रोज घटे, उसे आप कैसे बिसार सकते हैं। अब ईश्वर ने दिमाग़ को इतने कन्ट्रोल दिये लेकिन शिफ्ट, अल्ट और डिलीट नाम का बटन तो दिया ही नहीं। उसकी मर्ज़ी। खिलौना है आपका, तो बटन भी है आपका।


सन 2014 का तीसरा नवम्बर। इन्कमटैक्स चैराहे पर एक धीमी गति से आ रहे बाईक सवार पर बगल में खड़े एक रिक्शे से सफ़ारी सूट पहना एक युवक कूद जाता है। गौरतलब यह है कि वह युवक दाहिनी तरफ कूदता है। अगर उस बाईक की जगह कोई तेज़ रफ़्तार से चार पहिये वाला वाहन आ रहा होता तो पुनः, जीवन में कभी उसे कूदने की ज़रूरत ही नहीं होती। वह बन्दा इस्केप वेलोसिटी यानी पलायन वेग के से कई गुना तेज़ गति से स्वर्ग को कूच कर गया होता। अब आप कहेंगे- स्वर्ग क्यूँ भईया? वो इसलिये कि उसके जैसे लोगों ने तो नागरिक जीवन और समाज को पहले ही नरक बना रखा है जिसमें, उसे जहाँ मन करे, जिधर मन करे, कूद सकता है। तो, नरक तो वह जी ही रहा है और बड़े मज़े से जी रहा है। अब जो आदमी नरक में मज़ा लेने कि काबिलियत रखता है उसे यमराज कदापि नरक में तो नहीं ही रखेंगे। इन जैसे लोगों को तो स्वर्ग में कष्ट होता है। जहाँ हर चीज सुव्यवस्थित हैं, सुन्दर है, शान्त हैं। हाँ, तो वह युवक गलत तरीके से दाहिनी तरफ एक बाइक सवार पर कूद गया। बाइक वाला लड़खड़ाया लेकिन उसकी रफ़्तार इतनी कम थी कि वह सम्भल गया। ये उसकी तकदीर थी कि ईश्वर ने उसके मन में अनार का रस पीने की इच्छा डाल दी और उसे भी वहाँ से लगभग दस कदम आगे बांये होना था जहाँ रिक्शा खड़ा था और जिस रिक्शे से युवक उसके ऊपर कूदा था। इसलिये भी उसकी रफ़्तार कम थी। अब ऐसे में नज़रें तो मिलनी ही थीं। बाईक सवार युवक को उम्मीद थी कि वह सफ़ारी सूट वाला युवक उसे हाथ के इशारे से साॅरी कहेगा। बन्दे को मालूम नहीं या भूल गया कि स्वर्गीय मुकेश गा के गये हैं - ‘‘आँसू भरी है, ये जीवन की राहें...’’ और एक सन्त कह गये हैं कि अपेक्षा ही सारे दुःखों का अनिवार्य और दीर्घकाल तक ठहरे रहने वाला कारण है।


तो अपेक्षा से दुःख तो होना ही था। वह सफारी सूट वाला युवक आगे तो चलता रहा लेकिन उसकी गरदन पीछे की ओर मुड़ी रही। वह बाईक वाले युवक को धाराप्रवाह गालियाँ देने लगा और घुम-घुम कर मुक्के और थप्पड़ दिखाने लगा।


बाईक वाला युवक हतप्रभ था। वह जोर-जोर से कह रहा था- ‘‘अरे भाई! ऐसे दाहिने तरफ कूदियेगा और उल्टे हम्हीं को गरियाईगा।’’ तब तक वह सफारी सूट वाला बीच-पच्चीस कदम आगे वहाँ पहुँच चुका था जहाँ एक सफेद कार लगी थी और उसमें कुछ युवक शराब पी रहे थे। सभी फल और ज्यूस दुकान वाले अपने-अपने काम में तल्लीन थे। बिल्कुल नई-नई ब्याही औरतों की तरह, सर झुका कर। बस घूँघट और खनकती चूडि़यों की कमी थी। और वैसे भी नोट वाले बाबा तो बोल ही गये हैं कि बुरा मत देखो और जो हो रहा था वह बुरा तो था ही। वह सफारी सूट वाला उस कार में घुसा और दस सेकेंड के बाद उसके साथ तीन और युवक कार से निकले। कमाल की स्क्रिप्टिंग होती है बाॅस! आप मानिये या न मानिये! जब-जब आप सही होते हैं, आपके सारे दोस्त कहीं गुनाहे अजीम कर रहे होते हैं। मय छलका रहे होते हैं। गाना सुन रहे होते हैं। माल में परिवार को तफरीह करा रहे होते हैं। और जब आप गलत होते हैं तो सारे मोगाम्बोज, लायन्स, डाक्टर डैंग्स और गजनीज आपके साथ होते हैं। बाइक वाला युवक पहले तो डरा, फिर आशा बंधी कि इन तीन नये बन्दो को तो बताया जा सकता है कि वास्तव में हुआ क्या था। यहीं तो इन्डिया मार खा जाता है। एक मिनट पहले अपेक्षा ने बाइक सवार युवक की भावनाओं और प्रतिष्ठा का कबाड़ा कर दिया था और वह फिर अपेक्षा कर बैठा। वह भूल गया कि ‘’मैन‘’ चड्डी को पैन्ट के भीतर पहनता है और ‘‘सुपरमैन’’ चड्डी को पैन्ट के बाहर पहनता है और जितने भी बैडमैन्स और मोगाम्बोज हैं वो न तो पैन्ट पहनते हैं और न ही चड्डी पहनते हैं। अब कायदे की बात तो यही है कि नंगे आदमी भला कपड़े पहने आदमी को क्यूँ अपना समझेंगे और क्यूँ उसकी बाद सुनेंगे। नंगे लोगों के लिये कपड़े वाला आदमी एक इन्सल्ट की तरह होता है। बताओ, हम नंगे होकर प्रकृति में समाहित हो रहे हैं और ये कपड़े़ पहन कर इसे अवरूद्ध कर रहे हैं। अरे! जीवन का मूल ही हिंसा है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति ही विस्फोट से हुई है।


सो हुआ विस्फोट!


बाइक वाला युवक इससे पहले की अपनी बात शुरू कर पाता, उधर से लात शुरू हो गया। आगे न ही जानिये तो ही अच्छा है। वही मेलोड्रामा, वही वन शाॅट, टू शाॅट, क्लोज, वाइड, वही रिप्ले एक्शन और वही बैकग्राउन्ड म्यूजिक।


फिर वे युवक एक तरफा फाईट सिक्वेन्स का शाॅट देकर चलते बने। अब बचा वो बाईक वाला युवक और करीब दो दर्जन फल और ज्यूस की दुकानें। अब दूसरा कमाल हम इन्सानों का, विशेष तौर से हम तथाकथित सेन्सिबल भारतियों का यह है कि घटना घट जाने के बाद, खास कर जब घटना दूसरे के साथ घटी हो, भीड़ का हर एक आदमी नानक बन जाता, बुद्ध बन जाता है, चाणक्य बन जाता है, विदुर बन जाता है। उसमें से एक ने कहा- ‘‘काहे ल इ सब से लग गये भईया। अरे! इ सब एम.एल.ए. फ्लैट का लईका सब है। यही कामे है ई सब का।’’


बाईक वाले युवक ने कहना चाहा कि वह कहाँ उलझा? उसने कहाँ गलत किया? तभी उसके दिमाग में बजा- ‘‘बाबू, समझो इशारे, हारन पुकारे, पम-पम-पम!’’ अब वह और अपेक्षा नहीं करना चाह रहा था।


तो ये बताया जाये कि इसको घटना को बिसार दिया जाना चाहिये या नहीं? अगर हाँ तो क्यूँ? क्या ऐसी घटना उस युवक के जीवन में दुबारा नहीं घटेगी या पहले नहीं घटी होगी? इस देश में मानवाधिकार का उल्लंघन जितने बड़े और ताकतवर आदमी नहीं करते उसका सौ गुना या हजार गुना उनके लगुये-भगुये, साले-बहनोई, बेटी-दामाद, बेटा-पतोहु, टेनी-स्टेपनी और चमचे-डब्बू करते हैं।


गाड़ी के पीछे पागलों की तरह हार्न बजाना जबकि सिग्लन बन्द हो और आगे एक सूत भी जगह नहीं हो। बिना किसी बात का गाली दे-देना और थप्पड़ चला देना। लाईन तोड़ कर आगे बढ़ जाना। अपने आकाओं के दम पर सामाजिक और मानसिक आतंकवाद फैलाना। साधारण आदमी, चाहे वह पैदल चलता हो या कार में घूमता हो, घर लौट कर पाता है कि आज उसकी बेईज्जती नहीं हुई तो उसे लगता है वह आज तो जी गया। इस देश में सही-गलत जैसी कोई चीज नहीं होती। जो होता है, स्थिति होती है, ताकत होती है, पैसा होता है।


आप लाख सही हैं, अगर अकेले हैं तो अदृश्य हैं, अश्रवणीय हैं, महसूस किये जाने लायक भी नहीं हैं। न तो कोई आपको देखेगा, न तो कोई आपकी सुनेगा। आप अकेले हैं, अहिंसक है और कमजोर हैं तो सारी दुनिया घूँघट में है। नोट वाले बाबा के सिद्धांतों पर अमल कर रही है। और अगर आप गलत भी हैं लेकिन मजबूत हैं, हिंसक हैं और मेजाॅरिटी में हैं तो हर कोई आपको देखेगा भी, सुनेगा भी और सहेगा भी। मैं जानता हूँ इस लेख को पढ़ के आप भी इस विषय को विसार देगें, लेकिन कब तक? ये घटना आपके साथ भी हो सकती है। जिनके साथ मेजाॅरिटी होती है, मजबूती होती, हैं हिंसा होती है, खून में पागल कुत्ते की लार होती है, गुणसूत्रों में कई बापों का डी.एन.ए. होता है, वो तो ऐसे लेख पढ़ने से रहे। सो बड़ा अजीब समीकरण है। आप पढ़ना नहीं चाहते या पढ के बिसार देना चाहते हैं और जिनकी वजह से मैं यह लिखने को मजबूर हुआ उन्हें पढने की जरूरत नहीं है। अब मैं समझ पाया कि आम, कमजोर आदमी सिनेमा डूब के, मगन को के क्यूँ देखता है? वो इसलिये कि सिनेमा में ठीक इसका उल्टा दिखाया जाता है जहाँ एक लुचुर-पुचुर, सिंगल सिलेंडर, 50 सी.सी. इंजन वाला हीरो, दर्जनों हृष्ट-पुष्ट, आठ सिलेंडर और 1000 सी.सी. वाले मोगाम्बोज को उड़ा-उड़ा के पटक-पटक के, रगड़-रगड़ के धोता है। हम कमजोर लोग किताबों, फिल्मों और ख्वाब में जिन्दा हैं और जिन्दगी में बस चलते-फिरते मुर्दे हैं जिन्हें एक दिन पूरी तरह मर जाने के बाद बड़े सम्मान और प्यार से याद किया जाता है।


‘‘निर्मल अगस्त्य’’


4 नवम्बर 2014


पटना

Wednesday, November 12, 2014

"कभी-कभी"


कभी-कभी हम उतना नहीं जी पाते 
जितना,
कहीं किसी मोड़, किसी गली 
या किसी दरवाज़े से होकर 
गुज़रते हुए जी जाते हैं। 
चाँद में छिपी चवन्नी,
सूरज में दबी अठन्नी,
बादलों में तैरता बताशा,
एक टिकोले को टटोलती 
गुलेल की लचकती सी आशा !
भीड़ के आप-धापी में 
मुस्कुराता एक चेहरा,
किसी के होने से पहले
अपनेपन का घेरा,
हर इन्सान बस एक ख़्वाब है 
जो किसी की नींद में उतर तो सकता है,
जी नहीं सकता!

तब भी यही होता है 
कि हम उतना
जग के नहीं जी पाते, 
जितना ख़्वाब में जी जाते हैं। 

पन्द्रह पैसे का पोस्टकार्ड, 
चार आने की अन्तर्देसी और 
एक रुपये के लिफ़ाफ़े में 
शब्द नहीं जाते थे कभी,
एहसासों से बुनी हुई 
ज़िन्दगी जाती थी 
जिसका एक सिरा 
चिठ्ठी भेजने वाले के हाथ होता था 
और एक सिरा 
चिठ्ठी पाने वाले के हाथ।  
हम बोल के कहाँ उतना कह पाते हैं 
जितना लिख के कह पाते थे। 

बड़ी ख़ुशी होती है 
जब कोई 
बड़ी देर तक घन्टी बजने के बाद फ़ोन उठाता है,
और जम्हाई ले-ले कर देर तक बतियाता है। 
जब दिल बड़ा हो 
तो बिल कम लगने लगता है और जब 
दूरियाँ बहुत छोटी हों 
तो बैलेंस बड़ा लगने लगता है। 
कभी-कभी हम उतना नहीं समझ पाते 
जितना दिल चुपके से समझ जाता है। 
कभी-कभी हम शब्दों को उतना नहीं पढ़ पाते
जितना वे कहना चाहते हैं,
लेकिन हम उन्हें पढ़ के अक़्सर 
वहीँ छोड़ आते हैं। 
और जो पढ़ना बाक़ी रह जाता है 
वही अलफ़ाज़
मन में बस जाते हैं।    

"निर्मल अगस्त्य"

Sunday, May 11, 2014

“DISCOURSE”

Your eyes are beautiful!

I said…
It’s illusion of your eyes!
She said…
Your hairs are cloudy black!
I said…
There is darkness in your mind!
She Said…
You are the center of my imagination!
I said…
I am out of periphery!
She said…
You are the factorization of my emotional being!
I said…
You have forgotten mathematics!
She said…
I am in Love with you!
 I said…
Then I will say it importunateness!
She said…
Don’t you Love me!
I almost clamored and eyes were wet.

And for my Love she became dumb forever. 

Saturday, May 10, 2014

“GENERATION GAP”


Some years back 
Dad got me about 
Half score of homologous bottles 
Spilt with paint 
Thick and viscous 
Batter of their soul 
Overthrown, and all over my heart 
Treading with 
Heavy feet of imaginative phrase. 

Mom designed 
A pair of paint brush 
From the pile of 
Dried China-Rose shrub. 
Both of them found some canvas 
Murky, misty and smeared in dole 
Slept from years 
Inside the dark of an ageing chest. 

They inspirited me 
To enjoy fauvism and paint anything--- 
Anything beautiful and distortion free. 
I scribbled 
Many a thick lines, 
They laughed on it 
Kissed my forehead more often 
Ageing beside me and beneath their thought. 

Crept the days 
Evolving in me, 
Bottles condensed less ordinary viscous 
More darken tint. 
I wanted colours of my transient choice 
But the bottles two decades old 
Emerged a bone of passive contention. 

One day dad mentioned a pastoral calm 
That night I painted a huge boxing ring. 
Mom wished, plush blue bedroom 
And a waterfall 
Tranquil and sombre. 
I painted a semi-dark casino 
And a big asteroid falling on earth, 
Hitting a chopper. 

She clamoured for a frame 
Breathing in breast 
And sleeping in a pair of 
Rosy lips. 
I emerged with hunting lion 
And scavenging vultures. 

It was the height of 
Unsatisfying discontentment 
When I painted 
A robust black horse 
Fast and furious 
Strong and determined, 
While they had requested 
For A red holy Cow 
Feeding her calf. 

A few days before 
They had a treaty 
To hold the fort 
Command in a high shrill voice 
To paint a donkey, tame and stake. 

I painted a phoenix 
With the head of an eagle 
And torso of a panther 
Limbs of an orang-utan 
And feet of a squid. 

And they burnt the canvas 
In a fit of rage 
Broken all brushes 
Disposed of all emulsions 
In the deep of a sewer. 

Annoyed and torched 
I made a canvas 
From the skin of my zeal 
Allowed few ounce of blood 
To leave the arteries 
And I painted their voice 
A red holy Cow 
With her calf of their choice. 

In the same rebel night 
The cow broke the stake 
And absconded with her calf 
And my parents 
Who went for a search 
Are still missing with 
Their deceptive laugh.

      **************

“DEFEAT”

No one could take away

My right to Love
And the strength
Originated from that
                         ……. Love!
God reflected his beauty
From her body
From her presence,
Constrained with
                           …….boundaries!
I could see his defeat who was
Standing like a guilty
Near the fence,
And head down….
                             …….Limitation!
Where my soul hovers
With the Love that always wins,
Which I created.
And with the body that always loses,

                        ……..Which he created!

Sunday, January 19, 2014

वो दुनियाँ अगर ---

वो दुनियाँ---
विश्लेषण की कैंची से परे!
तर्क के सैंड पेपर से
दूर हम खड़े,
जो था बस कल्पना थी---
मन था--- सपने थे।

जहाँ परियाँ थीं झूलों पर
बोतल में बंद जिन्न था,
भूत, पिशाच, अमावस की रात में
रोटी-प्याज माँगने वाली बुढ़िया
और झाड़ू पर  उड़ने वाली चुड़ैलें थीं।

बचपन की वो दुनियाँ
जो पीछे छूट गयी
कहानियों वाली दुनियाँ!
कॉमिक्सों वाली दुनियाँ!
रेडियो अख़बारों वाली दुनियाँ!

वो गुड्डे-गुड़ियों की शादी की दुनियाँ
वो परियों की कहानियों की दुनियाँ,
वो शरबत की दुनियाँ
जिसके लिए  निम्बू
बड़ी बहादुरी से चुराये थे हमने।

वो पहली-पहली बार पिकनिक की दुनियाँ
जिसके लिए चूल्हे जलाये थे हमने,
वो पुड़ी जो कच्ची भी पक्की भी प्यारी थी
वो सब्ज़ी जो हम मिनटों में चट कर जाते थे,
फिर बर्तनों से टन-टन लड़ाई की दुनियाँ।

वो काग़ज़ी बन्दूकों से ढिच्क्यों का खेला
वो दुर्गाबाड़ी में चैती-दुर्गा का मेला
उस मेले में संवरकी के बेर की चटनी
खिचड़ी के परसाद के लाइन का रेला,
वो पानी में कमसिन मूछों की दुनियाँ
वो मूछों में सनसनाती पानी की दुनियाँ,
वो दुनिया तुम्हारी थी वो दुनियाँ थी मेरी
कहाँ छोड़ आये चकल्लस की दुनिया।

(मेरे कविता संग्रह - "इसी कुछ में" से )






Thursday, January 9, 2014

एक था. . . 

एक था कभी-
भीतर की तरफ़ मुड़ा हुआ,
एक मुट्ठी आसमान लेकर
निकल पड़ता था रोज़ सवेरे।

जब सारे शहर में
दिनचर्या की प्रार्थना गूँजती थी
वह शहर के अंतिम छोर पर
किसी बेनाम खंडहर की दीवारों को
माउथ-ऑर्गन सुनाया करता था,
एक मुट्ठी आसमान
छुई-मुई के पत्तों को ओढ़ा कर।

पुनः जब शहर
थपकियों के संगीत में
हौले-हौले हिल रहा होता
वह लौट आता था, चुपचाप!
उस एक मुट्ठी आसमान में
एक चुटकी सूरज छुपा कर।

एक था कभी-
जिसने चिड़ियाँ को
नर्गिस में बदलते देखा था शायद,
जिसने निर्वासित गायों को
कई बार घास के मैदान में
ले जा के छोड़ा था,
उसके कपड़े
बहुत साफ़ तो नहीं होते थे लेकिन
उसे गन्दा भी नहीं कहा जा सकता था,
सब की तरह वह
चप्पल भी पैरों में ही पहनता था,
थोड़े बहुत आलाप-तान के गुनगुनाहट
में तो रहता था वो
लेकि किसी ने उसे मन्त्रोच्चार करते
नहीं सुना था,
फिर भी लोगों की हुनर से
पागल था, सनकी था, औघड़ था।

उसने नदी की लहरों पर
चित्रकारी की थी,
पेड़ों को कवितायें सुनाई थी,
उसने तितलियों का
नृत्य भी देखा था शायद,
उसकी  चर्चा होती रहती थी
लेकिन वह ख़बरों में तो कहीं नहीं था!

और एक दिन वह
अचानक लापता हो गया!
फिर धीरे-धीरे
घर ख़र्च के हिसाब की कॉपी में
बच्चे की स्कूल की डायरी में
पत्नि के श्रृंगार सामग्री की सूची में
पिता के राम नाम लिखने वाले पत्ते में
माँ की पूजा के लिए
बेलपत्रों और आम्रपल्लवों की हरियाली में
रिश्तेदारों की शिकायतों की पोटलियों में
फ़ेमिली डॉक्टर की पर्चियों में
और जन्मोत्सव से श्राद्ध तक के आमंत्रण पत्रों में
उसके टुकड़े मिले!
एक था कभी-    

Sunday, January 5, 2014

"मेरी उम्र की दीवार पर "

आओ ---
तुम भी लिखो,
मेरी उम्र की दीवार पर।

मेरी उम्र
जो गुज़रती गयी दर-बदर,
कैसे बयां हो?
कि बस एक दीवार है
जिसपे पहली बार
कुछ बीस बरस पहले
लिखा था किसी ने-
"मुझे तुमसे प्यार है !"

वो तहरीर, वो लिखावट
और वही दीवार,
 दर-बदर!
ये कैसे बयां हो?

यूँ ही साल दर साल
लिखते रहे लोग
मेरी उम्र की दीवार पर,
अपना नाम और
मेरा नाम,
कुछ दिल की आकृति से घेरों में,
जो टूटे
तो टूटे बस उनके लिए।

नाम मेरा रहा
उसी  दिल की आकृति में
ख़ामोश!
जैसे मेरी उम्र की दीवार
रह गयी ख़ामोश
दर-बदर गुज़रती हुई।

सब उसी यक़ीन से
निशानी छोड़ आये
कि जैसे लिखावट और वादे
एक ही चीज़ हों,
बस मेरी उम्र जानती है
और उम्र की दीवार
कि बस लिखावट
रह गयी है बाकी
अब वादे कैसे बयां हो।

तुम ख़ुद को देखो
तो तुम
नयी-नयी आयी हो,
मैं ख़ुद को देखूँ
तो तुम नयी नहीं आयी हो
जो इतनी  संजीदा हो!
और दूर-दूर सहमी-सहमी सी
जैसे बारिश में भींगती।
एक बार तो लिख कर देखो-
अपना नाम, फिर मेरा नाम
दिल की आकृति से घेरों में।

दीवारों से क्या रिश्ता
उम्र से क्या नाता,
और ऐसे भी बीतती है
तो बीतने दो,
ये मेरी उम्र है!
तुम बस लिखो
कि दो कदम पे तक़ल्लुफ़ है
और दो हाथ पे स्याही
मेरी उम्र की दीवार पर तुम भी,
तुम भी अपना नाम लिखो,
और वादे?
वादे तो भूल जाने का
मुकम्मल सामान हैं।

दिल की आकृति से घेरों में
एक इबादत तुम भी लिखो
मेरी उम्र की दीवार पर,    
तुम भी लिखो
बस उसी यक़ीन से,
तुम भी लिखो
उसी शिद्दत से,
निशानी छोड़ कि तहरीर और अहद
एक ही तो चीज़ है।
घेरों की परवाह
तुम्हे क्यूँ कर हो,
वैसे भी अब तक उन घेरों में
उन दिल की आकृति के घेरों में
बस मेरा नाम ही बाकी है,
मेरी उम्र की दीवार पर
गुज़रती आ रही है जो,
दर-बदर!
ये कैसे बयां हो।