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Saturday, August 1, 2020

मैं भूल जाने का, एक मुक़म्मल सामान हूँ

"ग़ज़ल"                                                  "अगस्त्य" 

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मैं भूल जाने का, एक मुक़म्मल सामान हूँ 
तेरा क्या दोस्त, मैं भी ख़ुद से अनजान हूँ;

ख़ाक को उठा के हाथ से, क्या रगड़ा है कभी 
उसी क़िस्म का मैं भी, मिटता हुआ बयान हूँ; 

स्याह भी रौशन भी, ये राबता मुझे नागवार 
मैं तो शाम के मेले में, भटका एक इंसान हूँ; 

दुआ करो कि मुझे मौत, हँस- हँस के मिले 
इस रोती हुई ज़िंदगी से, मुसलसल हैरान हूँ; 

ख़बर थी कि शोलों को है, आब से शिकायत 
वही शोले छुपे हैं आब में, लाज़िम है हैरान हूँ; 

बात न तो मुद्दत की है और ना ही लम्हों की 
बात है सिलसिले की, जिसका मैं निगेहबान हूँ; 

गुज़र सको तो गुज़र जाओ, झोंके की तरह 
मैं तो बस रेत पे पड़ा, हवा का निशान हूँ; 

अगर देखी हो कभी तुमने, पानी से लिखी तहरीर 
बस उतना ही टेढ़ा हूँ, उतना ही आसान हूँ;  
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"अगस्त्य" 
पटना - 01-08-2020