"ग़ज़ल" "अगस्त्य"
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मैं भूल जाने का, एक मुक़म्मल सामान हूँ तेरा क्या दोस्त, मैं भी ख़ुद से अनजान हूँ;
ख़ाक को उठा के हाथ से, क्या रगड़ा है कभी
उसी क़िस्म का मैं भी, मिटता हुआ बयान हूँ;
स्याह भी रौशन भी, ये राबता मुझे नागवार
मैं तो शाम के मेले में, भटका एक इंसान हूँ;
दुआ करो कि मुझे मौत, हँस-
हँस
के मिले
इस रोती हुई ज़िंदगी से, मुसलसल हैरान हूँ;
ख़बर थी कि शोलों को है, आब से शिकायत
वही शोले छुपे हैं आब में, लाज़िम है हैरान हूँ;
बात न तो मुद्दत की है और ना ही लम्हों की
बात है सिलसिले की, जिसका मैं निगेहबान हूँ;
गुज़र सको तो गुज़र जाओ, झोंके की तरह
मैं तो बस रेत पे पड़ा, हवा का निशान हूँ;
अगर देखी हो कभी तुमने, पानी से लिखी तहरीर
बस उतना ही टेढ़ा हूँ, उतना ही आसान हूँ;
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"अगस्त्य"
पटना - 01-08-2020