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Friday, January 8, 2010
तुम्हारे ग़म का मौसम है
रोते रोते जब भीग गया
उन आँसुओं का मैंने अक्षर बनाया
जब पीते पीते बहक गया
उन डगमगाते कदमो की मैंने लकीरें बनाई
जब जागते जागते थक गया उन अक्षरों को लकीरों पे बिठाया
तू मेरी कृति की अनुकृति बनी शब्दों में
तू ही एक आकृति जो महकती है बौराए मंज़र से सपनो में
तू शामिल न हो सकेगी मेरी आखिरी बारात में पता है मुझे
शायद इसलिए तुझे गीतों में गुनगुनाया
कुछ ख्वाहिश न गाये कभी और अब भी नहीं ये हसरत है
मेरी साँसों में रहे खुशबू तेरी दे दे यही शरमाया
मैं चलता हूँ आवाज़ न देना रुका तो टूट जाऊँगा
उलफ़त के हज़ार धोखे हैं तूने ही समझाया
इन हर्फों में कहीं तेरा भी नाम छुपा है
ये तकदीर की है कविता मैंने नहीं छुपाया।
निर्मल अगस्त्य
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