जैसा भी और जितना भी है आसमान!
गोल, सपाट, किनारों पर झुका हुआ।
एक बिस्तर भर या थाली भर,
या जितना क्षेत्रफल ललाट का है
कम से कम उतना ही सही!
प्रेम पर लिखने के लिये तो काफी ही है।
और वैसे भी प्रेम पर
कोई इससे ज़्यादा क्या लिख सकता है,
एक अपने और एक उसके नाम के अलावा।
हालाँकि, प्रेम अगर वास्तव में है
तो नाम लिखना भी कोई विशेष उपक्रम नहीं है।
जैसा भी और जितना भी है आसमान!
फैला हुआ या बहता हुआ,
या उस वक़्त तक ठहरा हुआ
जब तक हम इसकी तरफ देखते रहते हैं।
उसमें जितना भी नीलापन है,
यहाँ से वहाँ तक लगातारपन की आभा
और जितनी जगह वो निकाल सकता है,
ले तो आता ही है प्रेम के लिये।
चाहे वो तुम्हारा हो, मेरा हो
या किसी और का हो।
इसमें कोई संशय नहीं
कि स्वीकृति अच्छी बात है
लेकिन क्या इतना
कि आसमान पर ठप्पा लगाने से बचा न जा सके।
दो नाम या दो शब्द की बात नहीं है,
बात सांकल और सिटकनी की है।
आसमान चाहे जितना भी है,
उसे आसमान बने रहने का पूरा अधिकार है।
उसमें सांकल और सिटकनी लगा कर
दरवाज़ा बना देना घोर अन्याय है।
तुम प्रेम के बारे में, अपने बारे में,
उसके बारे में एक बार और विचार कर देख सकते हो
कि उसे क्या चाहिये,
विस्तार या दरवाज़ा ?
निर्मल अगस्त्य।
.......
No comments:
Post a Comment