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Sunday, November 16, 2014

‘‘मौत किश्तोें में’’

‘‘मौत किश्तोें में’’

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मेरे बुजुर्गों ने कहा, हमेशा ही कहा कि - ‘‘बीती ताहे बिसारिये, आगे की सुध लेय...!’’ बात अच्छी है, श्रवणीय है, पठनीय है। लेकिन क्या ये हर मसले में अनुकरणीय भी है? हम उस हर घटना को ज़रूर बिसार देने के पक्ष में हैं जो, हमारे साथ एक या दो बार घटती है। जिसको दिमाग की कोशिकाओं के पीपे में सोच की इंजाइम डाल कर सड़ाने से, फर्मेन्ट करने से कोई अल्कोहल नहीं बनता कि थोड़ा झूम लिया जाये। बल्कि ज़हर बनता है। लेकिन जो दुर्घटना हमारे साथ हर रोज घटे, उसे आप कैसे बिसार सकते हैं। अब ईश्वर ने दिमाग़ को इतने कन्ट्रोल दिये लेकिन शिफ्ट, अल्ट और डिलीट नाम का बटन तो दिया ही नहीं। उसकी मर्ज़ी। खिलौना है आपका, तो बटन भी है आपका।


सन 2014 का तीसरा नवम्बर। इन्कमटैक्स चैराहे पर एक धीमी गति से आ रहे बाईक सवार पर बगल में खड़े एक रिक्शे से सफ़ारी सूट पहना एक युवक कूद जाता है। गौरतलब यह है कि वह युवक दाहिनी तरफ कूदता है। अगर उस बाईक की जगह कोई तेज़ रफ़्तार से चार पहिये वाला वाहन आ रहा होता तो पुनः, जीवन में कभी उसे कूदने की ज़रूरत ही नहीं होती। वह बन्दा इस्केप वेलोसिटी यानी पलायन वेग के से कई गुना तेज़ गति से स्वर्ग को कूच कर गया होता। अब आप कहेंगे- स्वर्ग क्यूँ भईया? वो इसलिये कि उसके जैसे लोगों ने तो नागरिक जीवन और समाज को पहले ही नरक बना रखा है जिसमें, उसे जहाँ मन करे, जिधर मन करे, कूद सकता है। तो, नरक तो वह जी ही रहा है और बड़े मज़े से जी रहा है। अब जो आदमी नरक में मज़ा लेने कि काबिलियत रखता है उसे यमराज कदापि नरक में तो नहीं ही रखेंगे। इन जैसे लोगों को तो स्वर्ग में कष्ट होता है। जहाँ हर चीज सुव्यवस्थित हैं, सुन्दर है, शान्त हैं। हाँ, तो वह युवक गलत तरीके से दाहिनी तरफ एक बाइक सवार पर कूद गया। बाइक वाला लड़खड़ाया लेकिन उसकी रफ़्तार इतनी कम थी कि वह सम्भल गया। ये उसकी तकदीर थी कि ईश्वर ने उसके मन में अनार का रस पीने की इच्छा डाल दी और उसे भी वहाँ से लगभग दस कदम आगे बांये होना था जहाँ रिक्शा खड़ा था और जिस रिक्शे से युवक उसके ऊपर कूदा था। इसलिये भी उसकी रफ़्तार कम थी। अब ऐसे में नज़रें तो मिलनी ही थीं। बाईक सवार युवक को उम्मीद थी कि वह सफ़ारी सूट वाला युवक उसे हाथ के इशारे से साॅरी कहेगा। बन्दे को मालूम नहीं या भूल गया कि स्वर्गीय मुकेश गा के गये हैं - ‘‘आँसू भरी है, ये जीवन की राहें...’’ और एक सन्त कह गये हैं कि अपेक्षा ही सारे दुःखों का अनिवार्य और दीर्घकाल तक ठहरे रहने वाला कारण है।


तो अपेक्षा से दुःख तो होना ही था। वह सफारी सूट वाला युवक आगे तो चलता रहा लेकिन उसकी गरदन पीछे की ओर मुड़ी रही। वह बाईक वाले युवक को धाराप्रवाह गालियाँ देने लगा और घुम-घुम कर मुक्के और थप्पड़ दिखाने लगा।


बाईक वाला युवक हतप्रभ था। वह जोर-जोर से कह रहा था- ‘‘अरे भाई! ऐसे दाहिने तरफ कूदियेगा और उल्टे हम्हीं को गरियाईगा।’’ तब तक वह सफारी सूट वाला बीच-पच्चीस कदम आगे वहाँ पहुँच चुका था जहाँ एक सफेद कार लगी थी और उसमें कुछ युवक शराब पी रहे थे। सभी फल और ज्यूस दुकान वाले अपने-अपने काम में तल्लीन थे। बिल्कुल नई-नई ब्याही औरतों की तरह, सर झुका कर। बस घूँघट और खनकती चूडि़यों की कमी थी। और वैसे भी नोट वाले बाबा तो बोल ही गये हैं कि बुरा मत देखो और जो हो रहा था वह बुरा तो था ही। वह सफारी सूट वाला उस कार में घुसा और दस सेकेंड के बाद उसके साथ तीन और युवक कार से निकले। कमाल की स्क्रिप्टिंग होती है बाॅस! आप मानिये या न मानिये! जब-जब आप सही होते हैं, आपके सारे दोस्त कहीं गुनाहे अजीम कर रहे होते हैं। मय छलका रहे होते हैं। गाना सुन रहे होते हैं। माल में परिवार को तफरीह करा रहे होते हैं। और जब आप गलत होते हैं तो सारे मोगाम्बोज, लायन्स, डाक्टर डैंग्स और गजनीज आपके साथ होते हैं। बाइक वाला युवक पहले तो डरा, फिर आशा बंधी कि इन तीन नये बन्दो को तो बताया जा सकता है कि वास्तव में हुआ क्या था। यहीं तो इन्डिया मार खा जाता है। एक मिनट पहले अपेक्षा ने बाइक सवार युवक की भावनाओं और प्रतिष्ठा का कबाड़ा कर दिया था और वह फिर अपेक्षा कर बैठा। वह भूल गया कि ‘’मैन‘’ चड्डी को पैन्ट के भीतर पहनता है और ‘‘सुपरमैन’’ चड्डी को पैन्ट के बाहर पहनता है और जितने भी बैडमैन्स और मोगाम्बोज हैं वो न तो पैन्ट पहनते हैं और न ही चड्डी पहनते हैं। अब कायदे की बात तो यही है कि नंगे आदमी भला कपड़े पहने आदमी को क्यूँ अपना समझेंगे और क्यूँ उसकी बाद सुनेंगे। नंगे लोगों के लिये कपड़े वाला आदमी एक इन्सल्ट की तरह होता है। बताओ, हम नंगे होकर प्रकृति में समाहित हो रहे हैं और ये कपड़े़ पहन कर इसे अवरूद्ध कर रहे हैं। अरे! जीवन का मूल ही हिंसा है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति ही विस्फोट से हुई है।


सो हुआ विस्फोट!


बाइक वाला युवक इससे पहले की अपनी बात शुरू कर पाता, उधर से लात शुरू हो गया। आगे न ही जानिये तो ही अच्छा है। वही मेलोड्रामा, वही वन शाॅट, टू शाॅट, क्लोज, वाइड, वही रिप्ले एक्शन और वही बैकग्राउन्ड म्यूजिक।


फिर वे युवक एक तरफा फाईट सिक्वेन्स का शाॅट देकर चलते बने। अब बचा वो बाईक वाला युवक और करीब दो दर्जन फल और ज्यूस की दुकानें। अब दूसरा कमाल हम इन्सानों का, विशेष तौर से हम तथाकथित सेन्सिबल भारतियों का यह है कि घटना घट जाने के बाद, खास कर जब घटना दूसरे के साथ घटी हो, भीड़ का हर एक आदमी नानक बन जाता, बुद्ध बन जाता है, चाणक्य बन जाता है, विदुर बन जाता है। उसमें से एक ने कहा- ‘‘काहे ल इ सब से लग गये भईया। अरे! इ सब एम.एल.ए. फ्लैट का लईका सब है। यही कामे है ई सब का।’’


बाईक वाले युवक ने कहना चाहा कि वह कहाँ उलझा? उसने कहाँ गलत किया? तभी उसके दिमाग में बजा- ‘‘बाबू, समझो इशारे, हारन पुकारे, पम-पम-पम!’’ अब वह और अपेक्षा नहीं करना चाह रहा था।


तो ये बताया जाये कि इसको घटना को बिसार दिया जाना चाहिये या नहीं? अगर हाँ तो क्यूँ? क्या ऐसी घटना उस युवक के जीवन में दुबारा नहीं घटेगी या पहले नहीं घटी होगी? इस देश में मानवाधिकार का उल्लंघन जितने बड़े और ताकतवर आदमी नहीं करते उसका सौ गुना या हजार गुना उनके लगुये-भगुये, साले-बहनोई, बेटी-दामाद, बेटा-पतोहु, टेनी-स्टेपनी और चमचे-डब्बू करते हैं।


गाड़ी के पीछे पागलों की तरह हार्न बजाना जबकि सिग्लन बन्द हो और आगे एक सूत भी जगह नहीं हो। बिना किसी बात का गाली दे-देना और थप्पड़ चला देना। लाईन तोड़ कर आगे बढ़ जाना। अपने आकाओं के दम पर सामाजिक और मानसिक आतंकवाद फैलाना। साधारण आदमी, चाहे वह पैदल चलता हो या कार में घूमता हो, घर लौट कर पाता है कि आज उसकी बेईज्जती नहीं हुई तो उसे लगता है वह आज तो जी गया। इस देश में सही-गलत जैसी कोई चीज नहीं होती। जो होता है, स्थिति होती है, ताकत होती है, पैसा होता है।


आप लाख सही हैं, अगर अकेले हैं तो अदृश्य हैं, अश्रवणीय हैं, महसूस किये जाने लायक भी नहीं हैं। न तो कोई आपको देखेगा, न तो कोई आपकी सुनेगा। आप अकेले हैं, अहिंसक है और कमजोर हैं तो सारी दुनिया घूँघट में है। नोट वाले बाबा के सिद्धांतों पर अमल कर रही है। और अगर आप गलत भी हैं लेकिन मजबूत हैं, हिंसक हैं और मेजाॅरिटी में हैं तो हर कोई आपको देखेगा भी, सुनेगा भी और सहेगा भी। मैं जानता हूँ इस लेख को पढ़ के आप भी इस विषय को विसार देगें, लेकिन कब तक? ये घटना आपके साथ भी हो सकती है। जिनके साथ मेजाॅरिटी होती है, मजबूती होती, हैं हिंसा होती है, खून में पागल कुत्ते की लार होती है, गुणसूत्रों में कई बापों का डी.एन.ए. होता है, वो तो ऐसे लेख पढ़ने से रहे। सो बड़ा अजीब समीकरण है। आप पढ़ना नहीं चाहते या पढ के बिसार देना चाहते हैं और जिनकी वजह से मैं यह लिखने को मजबूर हुआ उन्हें पढने की जरूरत नहीं है। अब मैं समझ पाया कि आम, कमजोर आदमी सिनेमा डूब के, मगन को के क्यूँ देखता है? वो इसलिये कि सिनेमा में ठीक इसका उल्टा दिखाया जाता है जहाँ एक लुचुर-पुचुर, सिंगल सिलेंडर, 50 सी.सी. इंजन वाला हीरो, दर्जनों हृष्ट-पुष्ट, आठ सिलेंडर और 1000 सी.सी. वाले मोगाम्बोज को उड़ा-उड़ा के पटक-पटक के, रगड़-रगड़ के धोता है। हम कमजोर लोग किताबों, फिल्मों और ख्वाब में जिन्दा हैं और जिन्दगी में बस चलते-फिरते मुर्दे हैं जिन्हें एक दिन पूरी तरह मर जाने के बाद बड़े सम्मान और प्यार से याद किया जाता है।


‘‘निर्मल अगस्त्य’’


4 नवम्बर 2014


पटना

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