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Tuesday, November 25, 2014

‘‘राम बनना है तो इनव्हेस्ट कर!’’


न को भी एजेन्टस् की आवश्यकता नहीं है। कोई उसका एजेन्ट बन भी नहीं सकता।
तुम्हारी एजेन्सी की लुटिया डूबो देगा ये कम्बख़्त मन। यह तुम्हारे अन्दर होकर भी तुम्हारी पहुँच से बाहर है।
इस पर विवेचना करोगे तो तुम स्वाद से बिछड़ जाओगे। चाहे वह सन्देश हो या किसी का रूप।
गुरू कहते रहे- ‘‘विवेक मन की लगाम है।’’
लो... पकड़ो !!!
अब कसते रहो लगाम...!
गोया तुम्हारा जन्म ही हुआ है लगाम कसने और नाल ठोंकने के लिये। सभी जानते हैं कि राम एक ही थे जो कभी मर्यादापुरूषोत्तम बन कर पृथ्वी पर अवतरित हुये थे। गुरूओं को आभास है कि राम दुबारा नहीं आने वाले अतः, उन्होंने राम बनाने का ठेका ले रखा है। उन्होंने कारखाने डाल रखे हैं, उनके वर्कशॉप में पर-वचन निरन्तर चल रहा है। पर-वचन...! जो ज्ञान दूसरों के लिये है। अपने लिये सुरा है, सुन्दरी है, मेवा है, कलेजी है।
अब उनको आभास है कि राम तो आयेगा नहीं तो क्रॉस व्हेरीफि़केशन का झंझट तो है ही नहीं। तीन महीने की एक्सटेन्सिव ट्रेनिंग और आधी जमापूंजी ख़र्च करने के बाद तुम्हारा सतर्क दिमाग़ ख़ुद ही बोल पड़ेगा कि अब कौन सी तुम्हारी सीता का हरण होने वाला है, और तुम्हारा बाप भी किसी कैकयी के फेर में नहीं पड़ने वाला। एक कौशल्या को सम्भालने में उसका पूरा शरीर टिस-टिस करता रहता है। आर्थराइटिस, स्पॉन्ड्लाइटिस, गैस्ट्राईटिस और भी न जाने कौन-कौन सा ‘टिस’।
दिमाग़, बही खाते को देखकर कहेगा- चलो बहुत हुआ... हो गये तुम राम... समझ गये मन को पकड़ने का गुर...। गुरू को प्रणाम खींच और चुपचाप निकल ले वरना प्रमोशन और इन्क्रीमेन्ट की गाड़ी पकड़ने की कला भूल जाओगे। तुम भी गदगद होकर सोचोगे- हाँ भई, कोई मशीन थोड़े ना बना है यह नापने के लिये कि तुमने मन को पकड़ के रखा है या नहीं या पकड़ कर रखा है तो कहाँ रखा है। तीस से चालीस लाख ख़र्च कर के जब डिप्टी कलक्टर बना जा सकता है तो किसी आश्रम में डेढ़ करोड़ खर्च कर के राम तो शर्तिया बना जा सकता है।
प्रोडक्ट मैनेजर बने रहना तो इन्सान का पहला धर्म है। इतना मँहगा प्रोडक्ट भला ख़राब होता है क्या। लो जी... तुम मन को जीत गये। राम बन गये। जाओ आज छुट्टी।
अभी-अभी ‘इन्सेपशन’ रीलिज़ हुई है। जा के देख आओ। तुम त्रेता युग के राम से ज्यादा धनी हो।
तुम दीक्षा सम्पन्न होने के उपरान्त ‘अवतार’ और और ‘इन्सेप्शन’ भी देख सकते हो। सीता घर में भाड़ झोंक रही है। तुम चौपाटी पर अपनी सेकेटरी के साथ रोमान्स कर सकते हो।
तुम राम से ज्यादा क्वालीफ़ायड हो। तुम्हारा रिज़्यूमे राम से ज्यादा तगड़ा है। तुम्हारी डिग्री ऑक्सफ़ोर्ड से मान्यता प्राप्त है। बेचारे राम क्या, उनके बाप दशरथ ने भी ऑक्सफ़ोर्ड का नाम नहीं सुना होगा।
तो इतनी मँहगी प्रक्रिया से गुज़रनी पड़ती है मन को पकड़ पाने के लिये। जितनी तेज़ी से पैसे ख़र्च होंगे उतनी ही तेज़ी से तुम सीखते जाओगे। नहीं भी सीखोगे तो तुम मान लोगे कि तुम सीख रहे हो।
कोई तुम्हारे सर पर हाथ रखकर कहे- तुम्हारे अन्दर बुद्ध छिपा बैठा है। तुम बुद्ध हो।
तुम उसे पागल समझ कर भगा दोगे, जबकि ऐसा बिल्कुल सम्भव है कि तुम वाकई बुद्ध का ही अवतार हो। बुद्ध को भी तुम्हारी तरह राजयोग मिला था। पर तुमने अभी इनव्हेस्ट नहीं किया इसलिये तुम अपने अन्दर के प्रोडक्ट की कीमत नहीं समझ रहे हो।
अगर तुम्हारी बीबी तुम्हारे नौकर के साथ भाग जाये, तुम्हारा बेटा बलात्कार कर फाँसी चढ़ जाये और तुम्हारा नौकर तुम्हारा सब कुछ हड़प ले और तब वही आदमी तुम्हारे सर पर हाथ रखकर तुम से कहे कि तुम बुद्ध हो, तुम्हारे अन्दर बुद्ध का अंश है तो तुम तत्क्षण उसे बोधि वृक्ष मान कर उसके कदमों में लम्बलेट हो जाओगे और कहोगे- ‘‘तुम अब कहाँ थे गुरू।’’
गुरू कहीं नहीं था। वो तो बस तुम्हारे इनव्हेस्टमेन्ट का इन्तज़ार कर रहा था। तुमने बीबी इनव्हेस्ट कर दी, तुमने बेटा इनव्हेस्ट कर दिया, तुमने प्रापर्टी इनव्हेस्ट कर दी, उसने तुम्हें बुद्ध बना दिया। तुम्हें समझा दिया कि तुम मन को पकड़ने का सार जान गये हो। जाओ-इस सर्टिफि़केट को अच्छी तरह मढ़वा कर अपने गले में टाँग लो। अभी तुम्हारे आगे-पीछे चेलों की भीड़ लगने वाली है इसलिये इसकेे पहले पास के मल्टीप्लेक्स में लगी ‘इन्सेप्शन’ देखकर घर जाना। सपने में सपना, सपने में सपना का मज़ा ले के जाना।
ये सुविधा राम को नसीब नहीं थी भाई और ‘इन्सेप्शन’ जैसी फि़ल्म दस रूपये की सी.डी. पर कभी समझ में नहीं आयेगी तुझे। चार सौ रूपये का टिकट ले, तब तू मुहल्ले में जा के कह सकेेगा कि तुझे ‘इन्सेप्शन’ समझ में आ गई है।
लोग पूछेंगे- ‘‘काहे का ‘इन्सेप्शन’? कहीं यह ‘कोन्ट्रासेप्शन’ की बड़ी बहन तो नहीं है?’’ तुम कहोगे- ‘‘नहीं यारों, ‘इन्सेप्शन’... ‘इन्सेप्शन’... माने... मल्टीप्लेक्स वाली ‘इन्सेप्शन’...’’
लोग कहेंगे- ‘‘धत्त तेरे की! ऐसा बोल ना कि ‘इन्सेप्शन’... देखा।’’ मल्टीप्लेक्स सुनते ही वे लोग भी समझ जायेंगे तू किस ‘इन्सेप्शन’ की बात कर रहा है और तू तो चार सौ का टिकट कटाते ही समझ गया होगा- ‘इन्सेप्शन’...!
‘इन्सेप्शन’...! माने ‘इन्सेप्शन’...! और क्या!
‘‘निर्मल अगस्त्य’’
‘उपन्यास अंश’ ‘‘बस एक तीली’’ से
तुम्हारी एजेन्सी की लुटिया डूबो देगा ये कम्बख़्त मन। यह तुम्हारे अन्दर होकर भी तुम्हारी पहुँच से बाहर है।इस पर विवेचना करोगे तो तुम स्वाद से बिछड़ जाओगे। चाहे वह सन्देश हो या किसी का रूप। गुरू कहते रहे- ‘‘विवेक मन की लगाम है।’’लो... पकड़ो !!!अब कसते रहो लगाम...!गोया तुम्हारा जन्म ही हुआ है लगाम कसने और नाल ठोंकने के लिये। सभी जानते हैं कि राम एक ही थे जो कभी मर्यादापुरूषोत्तम बन कर पृथ्वी पर अवतरित हुये थे। गुरूओं को आभास है कि राम दुबारा नहीं आने वाले अतः उन्होंने राम बनाने का ठेका ले रखा है। उन्होंने कारखाने डाल रखे हैं, उनके वर्कशॉप में पर-वचन निरन्तर चल रहा है। पर-वचन...! जो ज्ञान दूसरों के लिये है। अपने लिये सुरा है, सुन्दरी है, मेवा है, कलेजी है।अब उनको आभास है कि राम तो आयेगा नहीं तो क्रॉस व्हेरीफि़केशन का झंझट तो है ही नहीं। तीन महीने की एक्सटेन्सिव ट्रेनिंग और आधी जमापूंजी ख़र्च करने के बाद तुम्हारा सतर्क दिमाग़ख़ुद ही बोल पड़ेगा कि अब कौन सी तुम्हारी सीता का हरण होने वाला है, और तुम्हारा बाप भी किसी कैकयी के फेर में नहीं पड़ने वाला। एक कौशल्या को सम्भालने में उसका पूरा शरीर टिस-टिस करता रहता है। आर्थराइटिस, स्पॉन्ड्लाइटिस, गैस्ट्राईटिस और भी न जाने कौन-कौन सा ‘टिस’।दिमाग़, बही खाते को देखकर कहेगा- चलो बहुत हुआ... हो गये तुम राम... समझ गये मन को पकड़ने का गुर...। गुरू को प्रणाम खींच और चुपचाप निकल ले वरना प्रमोशन और इन्क्रीमेन्ट की गाड़ी पकड़ने की कला भूल जाओगे। तुम भी गदगद होकर सोचोगे- हाँ भई, कोई मशीन थोड़े ना बना है यह नापने के लिये कि तुमने मन को पकड़ के रखा है या नहीं या पकड़ कर रखा है तो कहाँ रखा है। तीस से चालीस लाख ख़र्च कर के जब डिप्टी कलक्टर बना जा सकता है तो किसी आश्रम में डेढ़ करोड़ खर्च कर के राम तो शर्तिया बना जा सकता है। प्रोडक्ट मैनेजर बने रहना तो इन्सान का पहला धर्म है। इतना मँहगा प्रोडक्ट भला ख़राब होता है क्या। लो जी... तुम मन को जीत गये। राम बन गये। जाओ आज छुट्टी।अभी-अभी ‘इन्सेपशन’ रीलिज़ हुई है। जा के देख आओ। तुम त्रेता युग के राम से ज्यादा धनी हो।तुम दीक्षा सम्पन्न होने के उपरान्त ‘अवतार’ और और ‘इन्सेप्शन’ भी देख सकते हो। सीता घर में भाड़ झोंक रही है। तुम चौपाटी पर अपनी सेकेटरी के साथ रोमान्स कर सकते हो।तुम राम से ज्यादा क्वालीफ़ायड हो। तुम्हारा रिज़्यूमे राम से ज्यादा तगड़ा है। तुम्हारी डिग्री ऑक्सफ़ोर्ड से मान्यता प्राप्त है। बेचारे राम क्या, उनके बाप दशरथ ने भी ऑक्सफ़ोर्ड का नाम नहीं सुना होगा।तो इतनी मँहगी प्रक्रिया से गुज़रनी पड़ती है मन को पकड़ पाने के लिये। जितनी तेज़ी से पैसे ख़र्च होंगे उतनी ही तेज़ी से तुम सीखते जाओगे। नहीं भी सीखोगे तो तुम मान लोगे कि तुम सीख रहे हो।कोई तुम्हारे सर पर हाथ रखकर कहे- तुम्हारे अन्दर बुद्ध छिपा बैठा है। तुम बुद्ध हो।तुम उसे पागल समझ कर भगा दोगे, जबकि ऐसा बिल्कुल सम्भव है कि तुम वाकई बुद्ध का ही अवतार हो। बुद्ध को भी तुम्हारी तरह राजयोग मिला था। पर तुमने अभी इनव्हेस्ट नहीं किया इसलिये तुम अपने अन्दर के प्रोडक्ट की कीमत नहीं समझ रहे हो।अगर तुम्हारी बीबी तुम्हारे नौकर के साथ भाग जाये, तुम्हारा बेटा बलात्कार कर फाँसी चढ़ जाये और तुम्हारा नौकर तुम्हारा सब कुछ हड़प ले और तब वही आदमी तुम्हारे सर पर हाथ रखकर तुम से कहे कि तुम बुद्ध हो, तुम्हारे अन्दर बुद्ध का अंश है तो तुम तत्क्षण उसे बोधि वृक्ष मान कर उसके कदमों में लम्बलेट हो जाओगे और कहोगे- ‘‘तुम अब कहाँ थे गुरू।’’गुरू कहीं नहीं था। वो तो बस तुम्हारे इनव्हेस्टमेन्ट का इन्तज़ार कर रहा था। तुमने बीबी इनव्हेस्ट कर दी, तुमने बेटा इनव्हेस्ट कर दिया, तुमने प्रापर्टी इनव्हेस्ट कर दी, उसने तुम्हें बुद्ध बना दिया। तुम्हें समझा दिया कि तुम मन को पकड़ने का सार जान गये हो। जाओ-इस सर्टिफि़केट को अच्छी तरह मढ़वा कर अपने गले में टाँग लो। अभी तुम्हारे आगे-पीछे चेलों की भीड़ लगने वाली है इसलिये इसकेे पहले पास के मल्टीप्लेक्स में लगी ‘इन्सेप्शन’ देखकर घर जाना। सपने में सपना, सपने में सपना का मज़ा ले के जाना।ये सुविधा राम को नसीब नहीं थी भाई और ‘इन्सेप्शन’ जैसी फि़ल्म दस रूपये की सी.डी. पर कभी समझ में नहीं आयेगी तुझे। चार सौ रूपये का टिकट ले, तब तू मुहल्ले में जा के कह सकेेगा कि तुझे ‘इन्सेप्शन’ समझ में आ गई है।लोग पूछेंगे- ‘‘काहे का ‘इन्सेप्शन’? कहीं यह ‘कोन्ट्रासेप्शन’ की बड़ी बहन तो नहीं है?’’ तुम कहोगे- ‘‘नहीं यारों, ‘इन्सेप्शन’... ‘इन्सेप्शन’... माने... मल्टीप्लेक्स वाली ‘इन्सेप्शन’...’’ लोग कहेंगे- ‘‘धत्त तेरे की! ऐसा बोल ना कि ‘इन्सेप्शन’... देखा।’’ मल्टीप्लेक्स सुनते ही वे लोग भी समझ जायेंगे तू किस ‘इन्सेप्शन’ की बात कर रहा है और तू तो चार सौ का टिकट कटाते ही समझ गया होगा- ‘इन्सेप्शन’...!‘इन्सेप्शन’...! माने ‘इन्सेप्शन’...! और क्या!‘‘निर्मल अगस्त्य’’‘उपन्यास अंश’ ‘‘बस एक तीली’’ से

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