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Wednesday, December 31, 2014

"ये बात और है - कि शायद कुछ भी नहीं"


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
जो ये दुआ कर रहे थे
कि जल्दी से चली जाए ये ठंड
और मिल जाए ये सोचने का बहाना
कि ज़िंदगी काट जाती है
कम्बल और अलाव के बिना,
उनको फ़र्क पड़ा क्या।


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
कि मोहल्ले में
एके दबंग युवक बीच रास्ते में
अपनी गाड़ी रोक कर
सबको दे रहा था गालियाँ
और शराब से ज़्यादा ताकत के नशे में चूर
बगल से गुजरते हुए हर आम इन्सान को
ज़िंदा होते हुए भी
अपने को मृत और
शरीर में पांच लीटर लहू,
दो हाथ, दो पाँव
और एक दिमाग़ होते हुए भी
अपने को अनाकृत मान लेने का
अभ्यास करा रहा था।
जो लोग मौन थे
वो उसकी जाति के थे
जो लोग मज़ा ले रहे थे
उनकी कोई जात नहीं थी
और जो लोग गालियाँ सुन कर भी
परिवार के बारे में सोच कर बढ़ जा रहे थे
वो किसी भी जाति के हों
चाहे कायस्थ, भूमिहार, राजपूत,
ब्राह्मण, यादव, बनिया, धानुक, कुर्मी
दुसाध, डोम, चमार या कुछ और
ग़ाली सुनते समय एक ही जाती के थे।
नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,


क्या ये नया था
कि इस शाम हम
पिछले साल से महंगी शराब पीने वाले थे?
या ये नया था कि
कैलेंडर के कुछ अंक बदल जाने वाले थे ?
या फिर ये नया था
कि "भूल जाओ ये छोटी मोटी बात"
कहने वाले कुछ और नए मित्र बनने वाले थे ?
या शायद ये नया था
कि ऐसी सूअर से बिना लड़े
घर लौट आने कि कला पर
पिता से शाबासी मिलने वाली थी।  


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
कि पार्टी में नृत्य हो रहा था
लेकिन एक नृत्य मेरे जेहन में हो रहा था
कि आख़िर आज बारह बजे के बाद
नया क्या हो जाएगा,
पार्टी में खाना हो रहा था
और एक सवाल मुझे खा रहा था
कि सही होते हुए भी
हार मान लेना या बच के निकल जाना
कला क्यूँ  हो गया है,
पार्टी में सिगरेट सुलग रही थी
और मेरा अन्तर्मन
इस बात पर सुलग रहा था
कि भीड़ या तो बेबस या एकदम उन्मादी
क्यूँ होती है।


नया क्या होने वाला है ?
शायद कुछ भी नहीं,
मैं पहले  कवितायेँ लिखता था
आज भी लिख रहा हूँ,
मैं पहले भी बिखरता रहा था
आज भी बिखर रहा हूँ,
मैं पहले भी कहता रहा था
कि हथियार और असलहे से
तस्वीर नहीं बनती, बस तारीख़ बनती है,
ये आज भी कह रहा हूँ।


चूँकि सभी कह रहे थे
तो मैंने भी सोचा कि
कुछ नया होने वाला है,
ये बात और है -
कि शायद कुछ भी नहीं।

''निर्मल अगस्त्य''

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