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Sunday, December 5, 2010

कहीं कोई खिड़की

जब पुराने शहर से कुछ पुराने लोग 
मिलने आ जाते हैं तो बरसों से जाम पड़ी कोई खिड़की 
दिखने में दुसह, दुर्वार!
पता नहीं कैसे हलके से छू देने से ही 
बिना चरमराये, चुपचाप खुल जाती है 
कि जैसे कभी बंद ही न हुई हो. 
जो हुआ अच्छा हुआ और ये जो है- 
टटका-टटका, ताज़ा-ताज़ा, रोज़मर्रे में टनमनाया, 
ये भी कोई ख़ास बुरा नहीं है. 
तब पुराने शहर के पुराने लोग 
चाय की चुस्किओं के बीच से बचाकर रखी गयी
मुस्कुराहट के साथ बताने लगते हैं कि 
यही कोई चार रोज़ पहले उधर भी एक खिड़की 
ऐसे ही हलके से छू देने से खुली थी 
और उसने भी ऐसा ही कुछ कहा था 
कि कुछ विशेष बोझिल नहीं है जीवन 
जबकि घृणा और संताप को खपाने के लिए 
नए और दैनन्दिनी में कुनमुनाते मसले, 
ज़्यादा अच्छा इमोशनल कारोबार दे रहे हैं. 
हालांकि, वो भी अच्छा ही था, 
रोमांच से भर देने वाला 
लेकिन अब उत्तरदायित्वों के सिलसिले 
मोहब्बत की फतांसी से कम मासूम तो नहीं ही हैं. 
तुम भी मुस्कुराते हो, बात बदलते हो, 
कि प्लेट में बिस्किट भी हैं जो न मीठे हैं न नमकीन. 
और उसमे लेमन ग्रास की खुशबू सी थी 
जो बार-बार डब्बा खुलने की वज़ह से अब नहीं  रही. 
जिसे तुमने किसी आते हुए दोस्त को बोलकर 
पुणे के किसी बेकरी से मंगाई थी,
जहाँ पिछले साल दो लोगों को तंदूर में भुन दिया गया था. 
पुराने शहर के पुराने लोग जानते हैं 
कि जो खिड़की अभी-अभी खुली है 
वो शहर पुणे तो नहीं ही है. 
फ़िर बात- पुणे, बेकरी, आग, आटा, तपन 
और लेमन ग्रास के सिग्नलों से होते हुए 
बच्चे, स्कूल, बजट, तंदूर, दवाई और परहेज़ के स्टेशनों पर 
दम भर रूकती-सरकती, विदा के हाथ हिलने तक 
धडा-धड, धडा-धड चली जाती है,
और पुराने शहर के पुराने लोगों के जाने के उपरांत 
कहीं कोई खिड़की नहीं होती. 
बस उनके बंद होने की चरमराहट, 
जो खुलते वक़्त तो नहीं थी, 
शेष रह जाती है.

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