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Thursday, December 9, 2010

बीच रास्ते में

कभी-कभी बिना किसी पूर्वाग्रह के हम
सड़क के ठीक बीचो-बीच चल रहे होते हैं!

ये बात और है कि 
इसकी वजह बेफ़िक्री भी हो सकती है
या कोई ग़ुमनाम नाराज़गी भी,
जो हम अक्सर बोलते-बोलते रह जाते हैं.

और पीछे अचंभित किसी गाड़ी के
अनवरत हार्न को अचानक से सुनने के बाद
हम मुड़ कर ऐसे देखते हैं
जैसे कि हम वराह की तरह
दाँतों पर पृथ्वी रख कर लौट रहे हैं
या सर पर हमने ब्रह्माण्ड उठा रखा है.

फ़िर हम रास्ता दे भी देते हैं--
सकपका कर या ज़बरदस्ती की
शर्मिन्दगी ओढ़ कर,
कुछ पलों के लिए ब्रह्माण्ड को
किसे जेब के हवाले करते हुए.

फ़िर रास्ते भर भुनभुनाते, बुदबुदाते,
कि काश!
पास भी एक तुरही होती
जो हम उस गाड़ी-चालक के
कानों के पास जा के बेरहमी से फूँक पाते,
कोई जड़ी या जादू की छड़ी होती हमारे पास
जो गाड़ी को एक खिलौने में बदल देता.

सोने-सोने तक हम
उस ब्रह्माण्ड की तरफ़ देख,
अपनी व्यस्तता स्थापित करने में लगे रहते हैं,
जो कायदन हमें
अपने अपने कार्यस्थलों पर ही छोड़ आना चाहिए था.
फ़िर हम सो ही जाते हैं---
कल्पना में गाड़ी हाँकते हुए,
उन रास्तों पर हवा से बातें करते हुए
जहाँ हमारी तरह कोई आदमी 
ब्रह्माण्ड सर पर लादे
बीच रास्ते में न चला जा रहा हो.  

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