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Saturday, September 11, 2010

राग-दीवार की बंदिश



दीवारों के पास
लगभग सभी तरह के
संवेदना के तत्त्व मौजूद हैं;
वे देखती हैं-
कलम और पन्नों के
भीतर बजते आलाप के जोड़-तोड़ को,
वे सुनती हैं-
बड़े चाव से
मेरी तन्हाई के संधिप्रकाश रागों को,
वे महसूस करती हैं-
मेरे हृदय से गमक के साथ फूटते
अकेलेपन के स्पंदन को,
वे सुनती हैं-
मेरी ख़ामोशी में
कण की तरह छू कर
वादी बने बैठे बेचैनी पर
उतर आये तड़प के जमजमे को,
वे सूंघती हैं-
मेरे मन में पक रहे
फतांसी और रोमांस को:
बड़ी नयी बात है की
जब मैं जागता रहता हूँ
शुक्र-तारे को ऊंघते देख-देख,
दीवारें और भी क़रीब चली आती हैं
जैसे उमड़ती सी नींद;
यह कोई अक्स
या ख़्वाब की मौशिकी सी है
कि अब मेरी आँखों में ही
------सोने लगी हैं दीवारें.

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